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दोनों ओरके सैनिक, अपने अपने नायकोंकी निंदा करते हुए, एक दूसरे पर आक्षेप करते हुए, परस्पर बढ़ा चढ़ीकी बातें करते हुए, ताल ठोकते हुए, शस्त्रोंकी झंकार करते हुए, काँसीके मजीरोंकी भाँति एक दूसरे से मिल गये । वीर चिल्लाने लगे - " खड़ा रह, खड़ा रह, भाग न जाना | आयुध ग्रहणकर नामर्दोंकी तरह क्या खड़ा है ? अपनी भलाई चाहता है तो शस्त्र रख दे और शरण में आजा आदि ।
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तीर, शंकु, भाले, चक्र, गदाएँ और परिघ जंगलमें उड़ते हुए पक्षियोंकी भाँति उड़ने और दोनों और की सेनाओं में आआ कर गिरने लगे । परस्परके प्रहारसे दोनों दलोंके वीर आहत होने लगे । उनके शिर कटकर उछलने लगे । उन उड़ते हुए मस्तकों और घड़ोंसे प्रतीत होने लगा, मानो सारे आकाश मंडलको राहु और केतुने ढक दिया है । मुद्गरोंके आघातसे हाथियोंको गिराने -वाले योद्धा ऐसे मालूम होने लगे मानो, वे डोटा दड़ीखेल रहे हैं। कई पंचशाखा क्षत होजानेसे -दो, हाथ, दो पैर और मस्तक के कट जानेसे-ऐसे मालूम होते थे, मानो फल, फूल पत्ते, टहनी और शाखा विहीन वृक्षका ठूंठ खड़ा है । वीर सुभट शत्रुओंके मस्तकोंको काटकर, पृथ्वीपर फेंकने लगे; मानो वे क्षुधातुर यमराजको भोजन दे रहे हैं ।