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जैन रामायण छठा सर्ग।
लिए, परलोकमें ही नहीं बल्के इस लोकमें भी उसकी दुर्गति होगी।"
विभीषणने उत्तर दियाः-" हे हनुमान ! तुम्हारा कथन सत्य है । मैं अपने ज्येष्ठ बन्धुको, सीताको छोड़ देनेके लिए पहिले भी कह चुका हूँ। और फिर दूसरी वार भी आग्रह पूर्वक अपने बन्धुसे प्रार्थना करूँगा। अच्छा हो कि, अबकी बार वे मेरे कहनेसे सीताको छोड़ दें।"
हनुमानकी देखी हुई सीताकी स्थिति। तत्पश्चात हनुमान वहाँसे उड़कर आकाशमार्ग-द्वारा उस देवरमण उद्यानमें गया, जहाँ सीताजी थीं । हनुमानने उनको अशोक वृक्षके नीचे बैठे हुए देखा. । देखा-उनके कपोल भागपर केश उड़ रहे हैं, उनकी आँखोंसे सतत गिरनेवाली अश्रु-जल-धाराने आसपासकी भूमिको गीला कर रक्खा है । हिम-पीडित कमलिनीकी भाँति उनका मुख-पंकज म्लान हो रहा है । द्वितीयाकी चंद्रकलाके समान उनका शरीर बहुत कृष हो रहा है । उष्ण निश्वासके दुःखसे उनके अधर-पल्लव व्याकुल हो रहे है । स्थिर योगिनीकी भाँति वे रामके ध्यानमें निमग्न हैं । वस्त्र मालिन हो गये हैं। अपने शरीरकी भी उनको-स्पृहा वांछा-नहीं है। ___ उनको देखते ही हनुमान सोचने लगे:-" अहो! येही सीता हैं। इनके दर्शन मात्रहीसे लोग पवित्र हो जाते हैं।