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जैन रामायण छठा सर्ग ।
है । चंद्र किरणें प्रसरित होती हुई ऐसी जान पड़ने लगी, मानो आड़े हाथ करके विरही जनोंने कामदेवके बाण स्खलित किये हैं । चिर-भुक्ता परंच सूर्यास्तसे दुर्दशा-प्राप्ता कमलिनीको छोड़कर, भँवरे कुमुदको भजने लगे।
“धिगहो नीचसौहृदम् ।" . ( अहो ! नीचकी मित्रताको धिक्कार है।) चंद्रमा अपनी किरणोंसे शेफालिकी-सुहाँजना-के फूलोंको गिराने लगा; मानो वह अपने मित्र कामदेवको बाण तैयार करके दे रहा है । चन्द्रकान्त मणियोंके जलसे नये सरोवरोंको निर्माण करता हुआ वह ऐसा जान पड़ने लगा; मानो उन सरोवरोंके बहाने वह अपना यश स्थापन कर रहा है । और दिशाओंके मुखको निर्मल करती हुई चाँदनी, इधर उधर भटकती हुई कुलटाओंके मुखको पद्मिनीकी भाँति ही म्लान करने लगी।
प्रातःकाल वर्णन। निःशंक होकर लंका सुंदरीके साथ क्रीडा करके, हनुमानने वह रात बिताई । प्रातःकाल ही इन्द्रकी प्रिय दिशा (पूर्व दिशा ) को मंडित करता हुआ, स्वर्णसूत्रके समान किरे णोंवाला सूर्य उदय हुआ। सूर्य-किरणोंने अव्याहत रीतिसे गिरकर विकसित कुमुदको मुझे दिया । जागृत हो रमणि योंने वेणियाँ खोलदी; पुष्प पृथ्वी पर गिर गये । भँवर उन पर गूंजने लगे; मानो पुष्प केश-पाशके वियोगसे,