SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०० जैन रामायण छठा सर्ग । पीडाके कारण, कोलाहलके बहाने पक्षी आक्रंदन करने लगे । रजस्वला होनेपर ललनाएँ अपने प्यारे पतिप्से दूर होनेके कारण जैसे दुखी होती हैं, वैसे ही बेचारी चक्रवाकी पति-वियोगसे दुःखी होने लगी। पति वियोगसे पतिव्रता स्त्री जैसे म्लान मुखी होजाती है, वैसे ही सूर्यरूपी पतिके अस्त हो जानेसे पद्मिनी मुझी गई । वायव्य स्नानकी प्राप्तिसे हर्षित, ब्राह्मणों द्वारा वंदित गउएँ अपने बछड़ोंसे मिलनेके लिए उत्कंठित हो, वनमेंसे वस्तीकी और दौड़ने लगीं । सूर्यने अस्त होते.समय अपना तेज ‘अग्निको दे दिया; जैसे कि युवराजको राजा राज्य सौंप देता है । नगरकी स्त्रियोंने प्रत्येक स्थानमें दीपक जलाये वे ऐसे मालूम होने लगे, मानो उन्होंने नक्षत्र श्रेणीकी शोभाको चुरा लिया है, या यह कहो कि, वह साक्षात नक्षत्र श्रेणी ही है। सूर्यके अस्त होजानेपर भी चंद्रमा उदय नहीं हुआ, इस लिए अवसर देखकर धीरे धीरे अन्धकार फैलने लगा। ___“छलच्छेकाः खलाः खलु ।” ( दुष्ट पुरुष छलमें चतुर होते हैं । ) पृथ्वी और आकाश रूपी पात्र अंधकार पूर्ण दिखाई देनेलगा; मानो अंजनगिरिके चूर्णसे अथवा अंजनसे वह परि पूर्ण हो रहा है । उस समय, स्थल, जल, दिशा, आकाश या भूमि कुछ भी नहीं दिखता था। विशेष क्या कहें-अपना हाथ
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy