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सार श्रीकंठके साथ उसका ब्याह कर दो।" पद्माने भी एक दूतीके द्वारा कहलाया:--" पिताजी ! श्रीकंठने मेरा हरण नहीं किया; मैं स्वयमेव उसके साथ, स्वयंवरा होकर, आई हूँ।" यह बात सुनते ही पुष्पोत्तरका क्रोध शान्त हो गया।
प्रायो विचारचंचूनां कोपः सुप्रशमः खलु ।' ' (विचारवान पुरुषोंका क्रोध सरलतासे-वास्तविक बात जानकर-शान्त हो जाता है।)
फिर पुष्पोत्तर बड़े उत्सवके साथ पद्मा और श्रीकण्ठको ब्याह कर अपने नगरको वापिस चला गया । कीर्तिधवलने श्रीकण्ठसे कहा:--" हे मित्र ! तुम यहीं रहो; क्योंकि वैताब्य गिरिपर तुम्हारे बहुतसे शत्रु हैं । राक्षसद्वीपसे थोड़ी ही दूर वायव्य कोणमें तीनसौ योजन प्रमाणका वानरद्वीप है । इसके सिवाय, बरवरकुल, सिंहल आदि भी मेरे द्वीप हैं-वे ऐसे सुन्दर जान पड़ते हैं कि मानो स्वर्गके खंड ही स्वर्गसे भ्रष्ट होकर यहाँ आये हैं-उनमेंसे एक द्वीपमें अपनी राजधानी बनाकर, तुम मेरे पासहीमें सुखसे रहो । यद्यपि शत्रुओंसे डरनेकी कोई आवश्यकता नहीं है, तथापि तुम्हारा वियोग मेरे लिए असह्य होगा इस लिए तुम वहीं रहो । " कीर्तिधवलके इन स्नेहवाक्योंको सुन, उसका वियोग अपने लिए भी आपदा पूर्ण समझ, श्रीकठने वानरद्वीपमें रहना स्वीकार कर लिया । कीर्तिधवलने