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राक्षसवंश और वानरवंशकी उत्पत्ति ।
स्निग्ध दृष्टिपूर्ण मुखकमलको श्रीकंठके मुखकी ओर करके खड़ी होगई, ऐसा ज्ञाता होता था कि वह स्वयंवरा होनेके.. लिए-श्रीकंठके गलेमें वरमाला डालनेको-उत्सुक हो रही. है । कामातुर श्रीकंठने इस बातको समझा । उसने पद्माके हृदयको अपने अनुकूल सपझा; अतः वह उसको उठा. अपने रथमें बिठा, आकाशमार्गके द्वारा अपने नगरकी ओर रवाना हुआ। पद्माके साथकी दासियाँ हा, हा कार करती हुई पुष्पोत्तर राजाके पास गई, और कहने लगी कि कोई पद्माका हरणकर उसको लेजा रहा है । यह समाचार सुन, सेनाको सज्जितकर, पुप्पोत्तर श्रीकंठके पीछे दौड़ा। श्रीकंठ भागकर कीर्तिधवलके शरणमें आया
और उसने, इसको पद्माको हर लानेकी सब बात सुना दी। प्रलयकालमें सागरका जल जैसे सब दिशाओंको ढक देता है, इसी प्रकार अपने सैन्य-जलसे दिशाओंको. आच्छादन करता हुआ, पुष्पोत्तर भी वहाँ जा पहुंचा। कीर्तिधवळको ये समाचार मिले । उसने पुष्पोचरके, पास एक दूत भेजा और उसके साथ कहलायाः-"विना विचारे क्रोधके वशमें होकर तुमने यह युद्ध-प्रयास प्रारंभ किया है सो ठीक नहीं है-व्यर्थ है । कन्याके लग्न तुमको करने ही थे; कन्या स्वयंवरा हुई है। वह निज इच्छासे श्रीकंठके साथ आई है । इसमें श्रीकंठका कोई अपराध नहीं है । अतः युद्धकी इच्छाको छोड़, कन्याकी इच्छानु