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________________ जैन रामायण छठा सर्ग । चाहती है, तो, मान छोड़कर सीताके पास जा और उसको विनय से समझा, कि जिससे वह मेरे साथ क्रीडा करनेको उद्यत हो । मैंने गुरुकी साक्षीसे नियम लिया है किअनेच्छु परस्त्रीके साथ मैं कभी भोग नहीं करूँगा ।' वह नियम आज मेरे लिए अर्गला हो रहा है । " २८० रावणके वचन सुन, पतिपीड़ासे पीडित बनी हुई कुलीन मंदोदरी तत्काल ही देवरमण उद्यानमें गई । वहाँ जाकर उसने सीतासे कहा:- " मैं रावणकी पट्टरानी - मंदोदरी हूँ। मैं भी तुम्हारी दासी होकर रहूँगी । अतः तुम रावणको चाहने लगो । हे सीता ! तुम्हें धन्य है, जो विश्वपूज्य चरणकमलवाले मेरे बलवान स्वामी भी तुम्हारे चरणकमलकी सेवा करनेको उद्यत हैं । -यदि रावण के समान पति मिले, तो उनके सामने, प्यादेके समान भूचारी और तपस्वी राम पति रंक मात्र है !" मंदोदरीके वचन सुन, क्रोधित हो, सीता बोळीं:कहाँ सिंह और कहाँ सियार ? कहाँ गरुड़ और कहाँ काकपक्षी ? इसी भाँति कहाँ राम और कहाँ तेरा पति रावण ? 66 अहो ! तेरा और पापी रावणका दम्पतीपन योग्य ही हुआ है। क्योंकि वह (रावण) परस्त्रीके साथ रमण करनेकी इच्छा करता है और तू उसकी स्त्री- उसकी कुट्टनीका कार्य करती है ।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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