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जैन रामायण छठा सर्ग ।
चाहती है, तो, मान छोड़कर सीताके पास जा और उसको विनय से समझा, कि जिससे वह मेरे साथ क्रीडा करनेको उद्यत हो । मैंने गुरुकी साक्षीसे नियम लिया है किअनेच्छु परस्त्रीके साथ मैं कभी भोग नहीं करूँगा ।' वह नियम आज मेरे लिए अर्गला हो रहा है । "
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रावणके वचन सुन, पतिपीड़ासे पीडित बनी हुई कुलीन मंदोदरी तत्काल ही देवरमण उद्यानमें गई । वहाँ जाकर उसने सीतासे कहा:- " मैं रावणकी पट्टरानी - मंदोदरी हूँ। मैं भी तुम्हारी दासी होकर रहूँगी । अतः तुम रावणको चाहने लगो । हे सीता ! तुम्हें धन्य है, जो विश्वपूज्य चरणकमलवाले मेरे बलवान स्वामी भी तुम्हारे चरणकमलकी सेवा करनेको उद्यत हैं ।
-यदि रावण के समान पति मिले, तो उनके सामने, प्यादेके समान भूचारी और तपस्वी राम पति रंक मात्र है !"
मंदोदरीके वचन सुन, क्रोधित हो, सीता बोळीं:कहाँ सिंह और कहाँ सियार ? कहाँ गरुड़ और कहाँ काकपक्षी ? इसी भाँति कहाँ राम और कहाँ तेरा पति रावण ?
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अहो ! तेरा और पापी रावणका दम्पतीपन योग्य ही हुआ है। क्योंकि वह (रावण) परस्त्रीके साथ रमण करनेकी इच्छा करता है और तू उसकी स्त्री- उसकी कुट्टनीका कार्य करती है ।