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जैन रामायण छठा सर्ग ।
विद्याधरकी रूपान्तर करनेवाली विद्या तत्काल ही, हरिणोंकी भाँति पलायन कर गई । साहसगति अपने असली रूपमें आगया। ___ उसको देखकर-पहिचानकर-रामने तिरस्कार करते हुए कहा:-" रे पापी ! मायासे सबको मुग्ध करके तू परस्त्रीके साथ भोग करना चाहता है। मगर अब धनुष चढ़ा।" फिर एक ही बाणमें रामने उसके प्राण हर लिए।
'न द्वितीया चपेटा हि हरेहरिणमारणे ।' ( हरिणको मारनेके लिए, सिंहको दूसरा थप्पड़ नहीं लगाना पड़ता है।)
तत्पश्चात विराधकी भाँति ही रामने सुग्रीवको गद्दीपर बिठाया। उसके पुरजन और सेवक लोग, सच्चे सुग्रीवकी पूर्वकी भाँति ही सेवा करने लगे।
सुग्रीवने हाथ जोड़कर अपनी तरह कन्याओंको ग्रहण करनेकी रामसे प्रार्थना की। रामने उत्तर दिया:-" हे सुग्रीव ! इन कन्याओंकी या और किसी वस्तुकी मुझको आवश्यकता नहीं है।"
राम बाहिर उद्यानहीमें रहे। सुग्रीव रामकी आज्ञासे. नगरमें गया। . मंदोदरीका सीताको समझाना।
उधर लंकामें मंदोदरी आदि रावणके अन्तःपुरकी खियाँ खर दूषण आदिके वधका वृतान्त सुनकर रोने