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विश्वकी रक्षा करनेमें समर्थ ऐसे आपको, और जगतको प्रकाशित करनेवाले सूर्यको, किसीकी सहायताकी आव-- श्यकता नहीं है; तथापि, मैं निवेदन करता हूँ कि-आपकी कृपासे मेरे शत्रुका नाश हो जानेपर सेना सहित मैं आपका अनुचर होकर रहूँगा और थोड़े ही समयमें सीताको खोज लाऊँगा।"
फिर राम सुग्रीव सहित किष्किंधामें गये । विराध भी उनके साथ जाना चाहता था; परन्तु वह समझाकर वापिस लौटा दिया गया।
रामचंद्र किष्किंधाके दर्वाजेपर जाकर ठहरे; सच्चे सुग्रीवने छद्मवेषी सुग्रीवको युद्धार्थ बुलाया । वह तत्काल ही गर्जना करता हुआ नगरके बाहिर आया ।
'रणाय नालसाः शूरा, भोजनाय द्विजा इव ।' (जैसे भोजनमें ब्राह्मण आलस नहीं करते हैं, वैसे ही शूर भी रणमें आलस्य नहीं किया करते हैं।)
दुर्द्धर चरण-न्याससे-पृथ्वीको कंपित करते हुए वे दोनों वीर वनके उन्मत्त हाथियोंकी भाँति युद्ध करने लगे।
राम दोनोंको समान रूपवाले देख, अपने सुग्रीवको और दूसरे सुग्रीवको न पहिचान, संशयित हो, थोड़ी देर तक तो तटस्थ खड़े रहे।
'पहिले तो ऐसा करना चाहिए। ऐसा सोच रामने बज्रावर्त-धनुषकी टंकार की। उस टंकारसे साहसगति