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________________ २७६ जैन रामायण छठा सर्ग । ( सत्पुरुषोंकी संगति पुण्यहीसे प्राप्त होती है।) दूतने शीघ्र ही सुग्रीवके पास जाकर उसको विराधका कथन कह सुनाया। तत्पश्चात सुग्रीव अश्वोंके गलेके गहनोंके शब्दोंसे दिशाओंको [जाता हुआ, तीव्र वेगसे दूरको अदूर करता हुआ, वहाँसे रवाना हो गया; और क्षण वारहीमें पाताललंकामें जा पहुँचा; जैसे कि कोई घरसे उपगृहमें (पासवाले. घरमें ) चला जाता है। विराधने हर्षसे सामने जाकर सुग्रीवका स्वागत किया। फिर सुग्रीवको लेकर विराध रामके पास गया । सुग्रीवने रामको प्रणाम किया । विराधने सुग्रीवकी सारी कष्ट कथा. रामको सुनाई। सुग्रीव बोला:-" हे प्रभो ! इस दुःखमें आप ही मेरी गति हैं । जैसे कि छींकके बंद हो जानेसे सूर्य ही आश्रय. होता है-सूर्यकी ओर देखनेहीसे छींक आती है।" राम स्वयं स्त्रीवियोगसे पीडित थे, तो भी उन्होंने सुग्रीबके दुःखको नष्ट करना स्वीकार किया। 'स्वकार्यादधिको यत्नः परकार्ये महीयसां ।' ( महापुरुष अपने कार्यकी अपेक्षा दूसरोंके कार्यमें. अधिक यत्न करते हैं।) तत्पश्चात विराधने सीताहरणके सब समाचार सुग्रीवको सुनाये । सुनकर सुग्रीवने हाथ जोड़, कहाः-" हे देव...
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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