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जैन रामायण छठा सर्ग ।
सच्चे सुग्रीवका सहायतार्थ रामके पास जाना। दूसरी बार युद्ध करनेसे सुग्रीव मनसे और शरीरसे खिन्न हो गया; इस लिए किष्किंधा छोड़ वह किसी अन्य स्थानमें जाकर रहा । जार सुग्रीव स्वस्थ मन होकर महलहीमें रहा; मगर वालीके कुमारके रोकनेसे वह अन्तःपुरमें न जा सका। ___ सच्चा सुग्रीव सिर झुकाकर मनमें सोचने लगा"अहो ! यह मेरा स्त्रीलंपट शत्रु, क्ट कपट करनेमें बहुत होशियार जान पड़ता है । मेरे खास नौकर भी मायासे उसके वशमें हो गये हैं । अहा ! यह तो अपने घोड़ेहीसे अपना पराभव हुआ है । मायासे उत्कृष्ट बने हुए इस शत्रुको अब मैं कैसे मारूँ ? अरे ! पराक्रम विहीन और वालीके नामको लज्जित करनेवाले मुझ कापुरुषको धिक्कार है ! महाबलवान वालीको धन्य है, कि जो पुरुषव्रतको अखंड रख, तृणकी भाँति राजको छोड़, मोक्षमें चले गये।
मेरा पुत्र 'चंद्ररश्मि ' संसार भरमें बलवान है; परन्तु वह क्या कर सकता है ? दोनोंके भेदको न समझ सकनेसे वह किसकी सहायता करे और किसको मारे; परन्तु उसने यह बहुत अच्छा किया कि, उस छद्मवेषीको अन्तःपुरमें नहीं घुसने दिया। अब उस बलिष्ठ शत्रुको मारनेके लिए कौनसे सबल पुरुषका आश्रय ग्रहण करूँ ?
" यद्घात्या एव रिपवः स्वतोऽपि परतोऽपि वा।"