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जैन रामायण पाँचवाँ सर्ग |
कर रामने पूछा: - " भद्रे ! यमराजके घर समान इस दारुण दंडकारण्य में तू अकेली यहाँ कैसे आई ? ”
उसने उत्तर दिया:-- “ मैं अवन्तिके राजाकी कन्या हूँ । रातको मैं महल में सो रही थी; वहाँसे कोई खेचर मुझको हरकर इस अरण्यमें ले आया । इतनेहींमें किसी दूसरे विद्याधर कुमार ने हमको देखा । इससे वह हाथमें खड़ लेकर बोला :-- “रे पापी ! रत्नहारको जैसे चील पक्षी ले जाता है, वैसे ही इस स्त्री रत्नको हरकर तू कहाँ जायगा ? मैं तेराकाल बनकर यहाँ आया हूँ । ”
इतना सुनकर मुझको, हरलानेवाले खेचरने मुझे छोड़, उसके साथ युद्ध करना प्रारंभ किया । बहुत देरतक दोनों खड़से युद्ध होता रहा । अन्तमें उन्मत्त हाथियोंकी भाँति दोनों मरगये । तबसे मैं यही सोचती हुई इधर उधर फिर रही हूँ कि, अब मै कहाँ जाऊँ । इतनेही में, मरू भूमिमें अचानक कोई छायादार वृक्ष मिल जाता है, वैसे ही पुण्य योगसे आप मिल गये हैं । हे स्वामी ! मैं एक कुलीन कुमारिका हूँ; इस लिए आप मेरे साथ व्याह कीजिए । महत्सु जायते जातु न वृथा प्रार्थनार्थिनाम् । '
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( महत्पुरुषों के पास की हुई याचकोंकी याचना वृथा नहीं जाती है | )
उसकी बातें सुनकर, महा बुद्धिमान राम लक्ष्मण परस्पर प्रफुल्ल नेत्र होः सोचने लगे कि, यह कोई मायाविनी स्त्री