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जैन रामायण पाँचवाँ सर्ग ।
पतिपर बड़ा क्रोध आया। वह शोकमग्न हो, मनही मन कहने लगी-“रे पापी ! तूने यह क्या पाप किया है ?"
उसी समय शोक-निममा पुरंदरयशाको शासम देवीने मुनि सुव्रतप्रभुके पास पहुँचाया । वहाँ तत्काल ही उसने मुनिसुव्रत स्वामीके पाससे दीक्षा लेली। __ अग्निकुमार निकायमें जन्मे हुए स्कंदकाचार्यके जीवने, अवधिज्ञान द्वारा अपने पूर्वभवका वृत्तान्त जान, पालक और दंडक सहित सारे नगरको भस्म कर दिया । तबहीसे नगर • दारुण और उजड़ होगया है; और दंडकके नामहीसे इस वनका नाम दंडकारण्य पड़ा है। .
दंडक राजा संसारकी कारणरूप अनेक योनियोंमें “परिभ्रमणकर, अपने पापकाँसे गंधनामा यह महारोगी । पक्षी हुआ है। हमारे दर्शनसे इसको जातिस्मरण ज्ञान हुआ है और हमें स्पर्शोषध नामा लब्धि प्राप्त है, इस लिए हमारे स्पर्शसे इसके सब रोग नष्ट होगये हैं।
इस प्रकार अपने पूर्वभवका वृत्तान्त सुन, पक्षी बहुत प्रसन्न हुआ। वह फिरसे मुनिके चरणों में गिरा और धर्म सुनकर उसने श्रावकपन स्वीकार किया। महामुनिने, उसकी इच्छा जानकर उसको जीवघात, मांसाहार और रात्रिभोजनका त्याग कराया।
फिर मुनिने रामचंद्रसे कहा:-" यह पक्षी तुम्हारा सधर्मी है । और सधर्मी बन्धुओंपर वात्सल्य करना कल्याणकारी है; ऐसा जिनेश्वर भगवानने फर्माया है।"