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जन रामायण पाँचवाँ सर्ग।
नेको तैयार हुए। उस समय, गमनेच्छु लक्ष्मणने भी वनमालासे जानेकी सम्मति चाही। _ आँखोंमें आँसू भरकर वनमाला बोली:-"माणेश ! उस समय आपने मेरे प्राणोंकी रक्षा किस लिए की थी ? यदि उस समय मैं मरजाती तो मेरी वह सुख-मृत्यु होती; क्योंकि मुझे आपके विरहका यह असह्य दुःख न सहना 'पड़ता। हे नाथ ! मुझे इसी समय ब्याह कर साथ ले चलो, नहीं तो तुह्मारे वियोगका छल पाकर यमराज मुझको ले जायगा।" - लक्ष्मणने उत्तर दिया:-" हे मनस्विनी ! इस समय 'मैं अपने ज्येष्ठ बंधु रामकी सेवामें लीन हूँ । इस लिए मेरे साथ चलकर भ्रातृसेवामें विघ्न न बनो । हे वरवर्णिनी ! मैं अपने ज्येष्ठ बन्धुको इच्छित स्थानपर पहुँचा, तत्काल ही तेरे पास आऊँगा और तुझको ले जाऊँगा। क्योंकि तेरा निवास मेरे हृदयमें है। हे मानिनी ! पुनः यहाँ आनेकी प्रतीतिके लिए यदि तुझको मुझसे कोई घोर प्रतिज्ञा कराना हो, तो वह भी मैं करनेको तैयार हूँ।" . .. फिर वनमालाकी इच्छासे लक्ष्मणने, शपथ ली कि यदि मैं पुनः लौट कर. यहाँ न आऊँ, तो मुझको रात्रिभोजनका पाप लगे।
रात्रिके अन्तिम भागमें राम वहाँसे स्वाना होकर आगे चले । क्रमशः कई वन. लाँघकर के क्षेमाजाल । नामा