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दैवयोगसे जिस उद्यानमें रामादि ठहरे हुए थे उसी उद्यानमें वह भी चली गई।
प्रथम उसने उस उद्यानस्थ यक्षायतनमें प्रवेश कर, चनदेवताकी पूजा की और कहा:-" जन्मान्तरमें भी मेरे पति लक्ष्मण ही होवें।" __ तत्पश्चात वहाँसे निकलकर उस वटवृक्षके पास गई। वहाँ उसने सुप्त राम और सीताके, पहेरुकी भाँति जागते हुए लक्ष्मणको देखा । लक्ष्मणने उसको देखकर सोचाक्या यह कोई वनदेवी है ? इस वटवृक्षकी अधिष्ठात्री है या कोई अन्य यक्षिणी है ? ___ इतनेहीमें लक्ष्मणने उसको बोलते हुए सुना:-" इस भवमें लक्ष्मण मेरे पति नहीं हुए । मेरी यदि उनपर पूर्ण भक्ति है, तो अगले भवमें मुझे लक्ष्मण ही वर मिलें।" आवाज बंद होगई। फिर लक्ष्मणने देखा कि उसने उत्तरीय वस्त्रसे कंठपाश बना, उसका, एक मुँह वट-वृक्षकी डालीसे बाँध, दूसरेको अपने गलेमें लगाया है । और फिर वह लटक गई है।
लक्ष्मणने तत्काल ही जाकर उसके गलेमें से पाशा खोल दिया और उसको नीचे उतारका कहा-" हे भद्रे ! मैं ही लक्ष्मण हूँ। तू ऐसा दुस्साहस न कर।" • रात्रिके अन्तिम भागमें राम लक्ष्मण जागृत हुए, तब लक्ष्मणने उन्हें वनमालाका सारा वृत्तान्त सुनाया । वन