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सीताहरण।
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जब मेरे अतिथि हुए थे, तब मैंने क्रोध करके आपको बहुतसे दुर्वचन कहे थे, तो भी आपने मुझको दया कर, इस आर्य पुरुषके हायसे छुड़ाया था।" ___ कपिलकी स्त्री सुशर्मा ब्राह्मणी, सीताके पास जा, पूर्वका वृत्तान्त सुना, दीन वचनोंसे आशीर्वाद दे, बैठ गई । रामने उनको बहुत धन देकर विदा किया । वे विदा होकर अपने गाँवमें गये । वहाँ कपिलने, वैराग्य हो जानेसे, यथा रुचि दान दे, 'नंदावतंस' मुनिके पाससे दीक्षा ले ली।" __ वर्षा ऋतु बीतगई, तब रामको वहाँसे जानेकी इच्छा हुई । गोकर्ण यक्षने हाथ जोड़कर कहा:-" हे स्वामी ! आप यहाँसे विदा होना चाहते हैं; ( इससे मुझको खेद होता है । ) आपकी भक्ति करनेमें मुझसे कुछ भूल हो गई हो-मुझसे कुछ अपराध होगया हो-तो मुझको क्षमा कीजिए और प्रसन्नता पूर्वक यहाँसे प्रस्थान कीजिए । हे महाभुज! आपकी योग्यता-नुसार आपकी सेवा करनेका किसी भी सामर्थ्य नहीं है।"
इतना कह उसने, एक 'स्वयंप्रभ' नामा हार रामके भेट किया, दो दिव्य रत्नमय कुंडल लक्ष्मणके अर्पण किये, और सीताको 'चूडामणि' और इच्छानुसार बजनेवाली वीणा दिये।