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________________ २२२ जैन रामायण पाँचवाँ सर्ग । रहकर लुटेरोंकी सहायतासे मैं शहरोंको लूटता हूँ और स्वयमेव जाकर राजाओंको भी पकड़ लाता हूँ। हे स्वामी, आज व्यंतरकी भाँति मैं आपके आधीन हुआ हूँ। अतः मुझे आज्ञा दीजिए कि, मैं किंकर आपकी क्या सेवा करूँ ? मेरे अविनयको आप क्षमा करो।" ___रामने उसे-किरातपतिसे-कहा:-" वालिखिल्य राजाको छोड़ दे।" तत्काल ही उसने वालिखिल्यको छोड़ दिया । इसने आकर रामको प्रणाम किया । रामकी आज्ञासे काकने वालिखिल्यको कूबर नगरमें पहुंचा दिया। वहाँ उसने अपनी कन्या कल्याणमालाको पुरुषके वेषमें देखा । फिर कल्याणमालाने और वालिखिल्यने राम लक्ष्मणका, एक दूसरेको सब वृत्तान्त सुनाया । __कपिल ब्राह्मणके घर रामका जाना। काक वापिस अपनी पल्लीमें गया । राम वहाँसे आगे चले । अनुक्रमसे विंध्याटवीको पारकर वे तापी नदीके पास पहुँचे । तापीको पारकर, आगे चलते हुए वे उस देशकी सीमापर आये हुए अरुण नामा नगरमें गये। . वहाँ सीताको प्यास लगी । राम, लक्ष्मण और सीतासहित एक कपिल नामा अग्निहोत्री, क्रोधी ब्राह्मणके घर भो। उसकी सुशर्मा नामा भार्याने उनको जुदा जुदा आसन दिया और शीतल व स्वादिष्ट जलका पान कराया।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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