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जैन रामायण पाँचवाँ सर्ग।
भद्रे ! पुरुषका वेष धारण कर, तू अपने स्त्री भावोंको क्यों छिपाती है ?"
कुबेरपति कल्याणमालाने कहाः-" इस कुबेरपुरमें वालिखिल्य नामक राजा था। पृथ्वीनामा उसके प्रिया थी। एकवार राणी गर्भिणी हुई, उसी समय म्लेच्छ लोगोंने कुबेरपुर पर चढ़ाई की; और वे वालिखिल्यको बाँध कर ले गये । समयपर पृथ्वीदेवीने पुत्रीको जन्म दिया, मगर बुद्धिशाली 'सुबुद्धीनामा मंत्रीने शहरमें घोषणा कर बाई कि राजाके पुत्र जन्मा है । पुत्रजन्मके समाचार सुन, यहाँके मुख्य राजा सिंहोदरने कह लाया कि, जबतक वालिखिल्य छूटकर न आवे, तबतक यह बालक ही राजा रहे । मैं अनुक्रमसे जन्मसे ही पुरुषका वेष धारण करती हुई इतनी बड़ी हुई हूँ। मेरा स्त्री होना, माता और मंत्रीके सिवा और कोई नहीं जानता है । कल्याणमालाके नामसे प्रसिद्ध होकर मैं राज्य करती हूँ। .. ' मंत्रिणां मंत्रसामर्थ्यात् स्यादलीकेऽपि सत्यता ।'
(मंत्रियोंके मंत्र-विचार-सामर्थ्य से असत्यमेंभी सत्यकी प्रवृत्ति हो जाती है । ) मेरे पिताको छुड़ानेके लिए मैं म्लेच्छोंको बहुत धन देती हूँ। वे धन ले जाते हैं, परन्तु मेरे पिताको छोड़ते नहीं हैं । अतः हे कृपालु ! आप कृपा करो और जैसे सिंहोदर राजासे वज्रकरणको छुड़ाया, है, वैसे ही म्लेच्छोंके पाससे मेरे पिताको भी छुड़वा दो।