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________________ २०४ जैन रामायण चतुर्थ सर्ग । रामके पास वनमें जा पहुँचे । वहाँ उन्होंने राम लक्ष्मण और सीताको एक वृक्षके नीचे बैठे हुए देखा । उनको देखते ही कैकेयी रथसे उतर पड़ी और 'हे वत्स ! हे वत्स!' कहती हुई, प्रणाम करते हुए रामका मस्तक चूमने लगी। लक्ष्मण और सीताने भी कैकेयीको प्रणाम किया । उनको .. बाहुसे दबाकर वह ऊँचे स्वरसे रोने लगी। भरतने आँखोंमें आँसू भरके रामके चरणोंमें प्रणाम किया। फिर वह खेदरूपी विषसे व्याप्त होकर, तत्काल ही मूर्छित होगया। वनमें, रामका, भरतको राज्याभिषेक करना। चेत होनेपर रामने भरतको भली प्रकारसे समझाया, तब भरत विनयपूर्वक बोला:-“हे आर्यबन्धु ! अभक्तकी भाँति मेरा त्याग करके आप यहाँ कैसे चले आये ? मेरे सिरपर माताके दोषसे कलंक लगा है किभरत राज्यका लोभी है । अतः उस दोषको आप मुझे वनमें अपने साथ लेजाकर, मिटादें। अथवा हे भ्राता ! आप वापिस अयोध्यामें चलकर राज्यलक्ष्मी ग्रहण करें। ऐसा करनेसे मेरा कोलीन-शल्यं मिट जायगा । आप राजा होंगे तो ये जगन्मित्र सामित्र (लक्ष्मण) आपके मंत्री होंगे; मैं ( भरत ) आपका प्रतिहारी बनूँगा और शत्रुघ्न छत्र रखनेका कार्य करेगा।" १ कुलीनताका नाशक-अधमकुल बनानेवाला-शल्य । ।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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