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जैन रामायण चतुर्थ सर्ग।
' महतां हि प्रतिज्ञा तु नचलत्यद्रिपादवत् ।' (बड़े पुरुषोंकी प्रतिज्ञा पर्वतके समान अचल रहती है।)
रामने उनको वारंवार पीछे फिर जानेको कहा; पगन्तु रामको लौटा लेजानेकी आशासे वे इनके पीछे पीछेही चले।
रामको बुलानेके लिए भरत और कैकेयीका जाना।
राम, लक्ष्मण और सीता आगे बढ़ते ही गये । वे शिकारी प्राणियों के स्थानरूप एक निर्जन और घनेवृक्षोंवाली पारियात्रा-विंध्या-अटवीमें जा पहुँचे। वहाँ मार्गमें गंभीर आवर्त-घेरे-और विशाल प्रवाह वाली गंभीरा नामा नदी आई । उसके किनारे खड़े होकर रामने सामंतोंसे कहा:-“तुम यहाँसे अब चले जाओ; क्योंकि. आगे बहुत ही कष्टकारी मार्ग आवेगा । पिताको हमारे कुशल समाचार कहना और अबसे भरतको पिताजीके समान और मेरे समान समझकर, उनकी सेवा करना।" ___" रामकी चरणसेवाके अयोग्य हमें धिक्कार है !" ऐसा कह, रुदन करते और अश्रुजलसे वस्त्रोंको भिगोते हुए, सामंत बड़ी कठिनतासे वापिस लौटे। सीता, लक्ष्मण और राम पारजानेके लिए नदीमें उतरे।
तीरपर खड़े हुए सामंतोंने साश्रुनयन उनको नदीके पार गये देखा । राम जब दिखनेसे बंद होगये तब, सामंतादि बड़े दुःखी होकर अयोध्याको लौटे । उन्होंने