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२०० जैन रामायण चतुर्थ सर्ग।
कौशल्याने आँखोंमें आँसू भरके कहा:-" वत्स ! मैं मंदभाग्या मारी जारही हूँ; क्योंकि तू भी मुझको छोड़कर वनमें जा रहा है। हे लक्ष्मण ! रामके विरहसे पीडित मेरे हृदयको आश्वासन देनेके लिए तू तो यहीं रह जा।"
लक्ष्मणने कहा:-" हे माता ! आप रामकी जननी हो, अधीर मत बनो । मेरे बन्धु दूर चले जा रहे हैं, मैं शीघ्र ही उनके पीछे जाऊँगा । अतः हे देवी ! मुझे न रोको। मैं सदैव रामके आधीन हूँ।"
ऐसा कह, प्रणामकर धनुषबाण हाथमें ले, तरकश -गलेमें डाल, लक्ष्मण शीघ्र ही दौड़कर राम, सीताके पास जा पहुंचे।
फिर प्रफुल्ल मुख त्रिमूर्ति ( राम, लक्ष्मण और सीता) वनमें जानेको नगरसे बाहिर निकले । उनका जाना ऐसा प्रतीत होता था, मानो वे क्रीडा करने के लिए क्नमें जा
निज प्राण समान राम, लक्ष्मण और सीताको नगरवासियोंने जब नगरके बाहिर जाते देखा, तब वे अतीव व्याकुल हुए। वे अति स्नेहके साथ रामके पीछे दौड़े हुए जानेलगे और क्रूर कैकेयीको बहुत बुरा भला कहने लगे।
राजा दशरथ भी अन्तः पुरके परिवार सहित स्नेह-रज्जुसे खिचकर रुदन करते हुए तत्काल ही रामके पीछे चले।