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जैन रामायण चतुर्थ सर्ग |
बहुत ही श्रेष्ठ किया । हे पिताजी आप कृपा करके मुझसे इस विषयमें सलाह लेते हैं । मगर मुझे इससे दुःख होता है । क्योंकि लोगों में यह मेरे अविनयी होनेकी सूचनाका कारण होता है । तात ! आप संतुष्ट होकर यह राज्य चाहे किसीको दीजिए । मैं तो आपके एक तुच्छ प्यादा समान हूँ । मुझे निषेध करनेका या सम्मति देनेका कुछ भी अधिकार नहीं है। भरत है वह मैं ही हूँ। हम दोनों आपके लिए समान हैं । अतः बड़े हर्ष के साथ भरतको राज्य सिंहासन पर बिठाइए । "
रामके वचन सुनकर, दशरथको विशेष प्रीति और विस्मय उत्पन्न हुए। फिर दशरथ तदनुसार करनेकी मंत्रियोंको आज्ञा देने लगे, इतनेहीमें भरत बोल उठे :- " हे स्वामी ! आपके साथ व्रत लेनेकी मैंने पहिले ही आपसे प्रार्थना की थी, इस लिए किसीके कहने से उसको अन्यथा करना किसी तरह योग्य नहीं है ।
दशरथने कहा :- " हे वत्स ! मेरी प्रतिज्ञा व्यर्थ मत कर । तेरी माताको मैंने पहिले वरदान दिया था । उसने चिरकाल से मेरे पास धरोहर की तौरपर उसको रख रक्खा था । वह आज उसने माँग लिया है; वह तुझको राज्य दिलाना चाहती है। इस लिए हे पुत्र तेरी माताकी और मेरी आज्ञाको अन्यथा करना तेरे लिए योग्य नहीं है । "