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राम लक्ष्मणकी उत्पत्ति, विवाह और वनवास। १९५ फिर रामने भरतसे कहा:-“हे भ्राता! यद्यपि तुम्हारे हृदयमें राज्यप्राप्तिका लेश मात्र भी गर्व नहीं है-राजकी लेश भी चाह नहीं है; तथापि पिताके वचनको सत्य करनेके लिए राज्यको ग्रहण करो।"
रामके ऐसे वचन सुन, भरतकी आँखोंमें पानी भर आया। वे रामके चरणों में गिर, हाथ जोड़, गद्गद स्वर हो, कहने लगेः-" हे पूज्य बन्धो ! पिताके लिए और आप जैसे महात्माओंके लिए मुझको राज्य देना योग्य है। परन्तु मेरे जैसोंके लिए ग्रहण करना योग्य नहीं है । क्या मैं राजा दशरथका पुत्र नहीं हूँ ? क्या मैं भी आपके समान आर्यका अनुज बन्धु नहीं हूँ ? कि जिससे मैं गर्व करूँ और सचमुच ही मातृमुखी कहलाऊँ।"
राम, लक्ष्मण और सीताका वनगमन । यह सुनकर रामने दशरथसे कहा:-" मेरे यहाँ होते हुए भरत राज्यको ग्रहण नहीं करेगा। इस लिए मैं वनवास करनेको जाता हूँ।" इतना कह, पिताकी आज्ञा ले, भक्तिसे नमस्कार कर, राम हाथमें धनुष ले, गलेमें तरकश डाल, वहाँसे रवाना हुए। भरत उच्च स्वरसे रुदन करने लगे । रामको वनमें जाते देख अत्यंत स्नेहकातर राजा दशरथ वारंवार मूच्छित होने लगे।
राम वहाँसे निकल अपनी जननी अपराजिताके पास जाकर बोले:-" हे माता ! मैं जैसे तुम्हारा पुत्र हूँ वैसे