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जैन रामायण चतुर्थ सर्ग
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वहाँसे चवकर सूर्यजयका जीव तू हुआ और रत्न -- मालीका जीव चवकर जनक राजा हुआ । पुरोहित उपमन्यु सहस्रार देवलोकमेंसे चवकर जनकका छोटा भाई कनक हुआ । और नंदिवर्द्धन के भवमें जो जीव, नंदिघोष नामा तेरा पिता था, वह ग्रैवेयकमेंसे चवकर, मैं सत्यभूति हुआ हूँ ।
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दशरथ राजाको दीक्षा लेनेकी इच्छा होना । इस तरह अपना पूर्व भव सुनकर, दशरथ राजाको वैराग्य उत्पन्न हो आया । इससे तत्काल ही वह वहाँसे मुनिको वंदना कर, राज्यभार रामको सौंपनेके लिए महलमें गया ।
दीक्षा लेनेके उत्सुक दशरथने अपनी रानियों, मंत्रियों और पुत्रोंको बुला, उनके साथ सुधारस के समान वार्ता - लाप कर, उनसे दीक्षा लेनेकी आज्ञा माँगी ।
उस समय भरतने नमस्कार करके, कहा:- "हे प्रभो ! आपके साथ मैं भी सर्व विरति बनूँगा; आपके विना मैं घरमें नहीं रहूँगा । यदि घरमें रहूँगा तो मुझको अत्यंत.. दुःखदायी दो कष्ट होंगे । एक आपका विरह और दूसरा संसारकी ताप ।
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भरतके वचन सुनकर, कैकयी डर गई। वह सोचने लगी - यदि ऐसाही निश्चित हो जायगा तो फिर मेरे पुत्र या पति एक भी नहीं रहेगा । यह विचार वह बोली: