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जैन रामायण चतुर्थ सर्ग |
भवमें प्रकृति से ही उदार ऐसा तू साधुओं को श्रद्धापूर्वक अधिक दान देता था ।
वहाँसे मरकर तू धातकी खंड द्वीपके उत्तर कुरुक्षेत्र में जुगलिया उत्पन्न हुआ । वहाँसे देवता हुआ । वहाँसे चवकर, पुष्कलावती विजयमें, पुष्कला नगरीके राजा 'नंदिघोष और पृथ्वी देवीका तू नंदिवर्द्धन नामक पुत्र हुआ । नंदिघोष राजा, तुझको - नंदिवर्द्धनको- राज्य दे, यशोधर मुनिके पाससे दीक्षा ले, कालधर्म पा, ग्रैवेयक में देवता हुआ। तू नंदिवर्द्धन श्रावकपन पाल, मृत्यु पा, ब्रह्मलोक देवता हुआ ।
वहाँसे चवकर प्रत्यग विदेहमें, वैताढ्य गिरिकी उत्तर श्रेणके आभूषणरूप शिशिपुर नामके नगरमें खेचरपति रत्नमालीकी, विद्युलता नामा स्त्रीसे, सूर्यजप नामका तू - महापराक्रमीपुत्र हुआ ।
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एकवार रत्नमाली गर्वित विद्याधरपति वञ्चनयनको जीतने के लिए, सिंहपुर गया । वहाँ उसने, बाल वृद्ध, स्त्री, "पशु और उपवन सहित, सारे नगरको जलाना प्रारंभ किया । उस समय उपमन्यु नामा उसके पुरोहितका जीवजो उस समय सहस्रार देवलोकमें देवता था - आकर कहने लगाः- - " हे महानुभाव, ऐसा उग्रपाप न कर । तू पूर्वभवमें भूरिनंदन नामा राजा था। उस समय तूने विवेक पूर्वक यह प्रतिज्ञा ली थी कि, तू मांसका भोजन नहीं