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१८४ जैन रामायण चतुर्थ सर्ग । लक्ष्मणके ज्येष्ठ बंधु रामने 'वज्रावर्त, धनुषको-जिसपरसे सर्प और अग्निज्वाला शान्त होगये थे-निःशंक होकर उठालिया; जैसेकि इन्द्र वज्रको उठालेता है । फिर धनुषधारियोंमें श्रेष्ठ रामने लोहेकी पीठको ऊपर रख, बैंतकी भाँति उसको झुका चिल्लेको थनुषपर चढाया । और कानतक खींचकर उसका आस्फालन किया-उसको चलाया। धनुष, शब्दद्वारा, पटहकी भाँति, रामकी कीर्तिको प्रसिद्ध करता हुआ, और भूमि व आकाशके उदरको भरता हुआ, गूंज उठा। __ सीताने तत्काल ही आगे बढ कर रामके गलेमें वरमाला डाल दी । रामने धनुषसे चिल्लेको उतार डाला । फिर लक्ष्मणने भी रामकी आज्ञासे 'अर्णवावर्त' धनुषको चढ़ाया । लोग विस्मयके साथ यह सब कुछ देखते रहे । उसका आस्फालन करनेसे उसने नादसे दिशाओंके कानोंको बहरा बना दिया। फिर चिल्लेको उतारकर लक्ष्मणने उसको वापिस उसकी जगह रख दिया।
उस समय विस्मित और चकित बने हुए विद्याधरोंने देवकन्याओंके समान अद्भुत अपनी अट्ठारह कन्याएँ लक्ष्मणको दी। चंद्रगति आदि विद्याधर राजा लज्जित होकर, तपे हुए भामंडलसहित अपने अपने स्थानको गये। · जनक राजाने दशरथको संदेशा भेजा । दशरथ आये। उन्होंने बड़े उत्सवके साथ राम और सीताका ब्याह