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राम लक्ष्मणकी उत्पति, विवाह और वनवास । १८३
देवी तुल्य जान पड़ती थी । लोगोंकी आँखों के लिए अमृतकी सरिता समान, जानकी रामका ध्यान धर धनुकी पूजा कर वहाँ खड़ी हो गई ।
नारदके कथनानुसार ही सीताके रूपको देखकर, भामंडल के हृदयमें कामदेव प्रहार करने लगा ।
उस समय जनकके एक द्वारपालने ऊँचा हाथ करके कहा: – “ हे सर्व खेचरो और पृथ्वीचारी राजाओ ! जनकराजा कहते हैं कि इन दो धनुषोंमेंसे जो कोई एक धनुषको चढ़ालेगा वह मेरी पुत्रीका वर होगा । "
सुनकर खेचर, और मनुष्य राजा, एकके बाद दूसरा, उन धनुषोंके पास, जाजा कर लौटने लगे । उनको चढ़ाना तो दूर रहा; परन्तु भयंकर सर्पवेष्टित, तीव्रतेजवाले उन धनुषको कोई स्पर्श भी नहीं कर सका । अनेक तो धनुषोंमेंसे निकलते हुए अग्नि - स्फुलिंगोंसे दग्ध होकर लज्जा से सिर झुकाये हुए अपने आसनोंपर जाकर बैठ गये ।
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फिर जिसके कांचनमय कुंडल चलित हो रहे हैं, ऐसे दशरथ कुमार राम गजेन्द्र लीलासे गमन करते हुए उस धनुष के पास गये ।
उस समय चंद्रगति आदि राजाओंने उपहासमय दृष्टिसे और जनकने शंकामय दृष्टिसे रामकी ओर देखा ।