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जैन रामायण चतुर्थ सर्ग |
एक पुत्रको हर लिया, तो भी तृप्त न हुआ । अब तू मेरी पुत्रीको भी हर लेनेकी इच्छा रखता है । संसारमें पुत्रीके लिए स्वेच्छा से वर ग्रहण किया जाता है; दूसरों की इच्छासे नहीं । मगर दैवयोगसे मेरे लिए तो दूसरेकी इच्छासे वर ग्रहण करनेका समय आया है । दूसरेकी इच्छासे की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार यदि राम इस धनुषको न चढ़ा सकेंगे, और कोई दूसरा चढ़ा लेगा तो मेरी कन्याको अवश्यमेव अनिष्ट वर मिलेगा । हाय ! दैव ! मैं क्या करूँ ? "
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विदेहाका रुदन सुन, जनक राजाने उसको, आश्वासन देते हुए, कहा:" हे देवी ! तुम भय न करो। मैंने रामका बल देखा है । यह धनुष उनके लिए एक लताके समान है । "
सीताका स्वयंवर और राम, लक्ष्मण और भरतका ब्याह । विदेहाको इस प्रकार से समझाकर, दूसरे दिन सवेरे ही जनकने, मंचमंडित मंडपमें उन दोनों धनुष रत्नोंको पूजा करके रख दिया । जनक राजाने सीताके स्वयंवर में विद्याधर राजाओं और मनुष्य राजाओंको बुलाये थे । वे 1 आ आकर मंचपर बैठे ।
पश्चात् जानकी दिव्य अलंकारोंको धारण कर, सखि - योंसे घिरी हुई, मंडपमें आई । भूमिपर चलती हुई वह १- बाँसोका बना हुआ ऊँचा आसन ।