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जैन रामायण चतुर्थ सर्ग ।
- दारुण आचारवाळे पुरुषोंसे अत्यंत दारुण बना हुआ है। उस देशका आभूषण रूप नगरसाल नामा नगर है । वहाँ आतरंग नामा अति दारुण म्लेच्छ राजा राज्य करता है। उसके हजारों पुत्र हैं। वे राजा बनकर शुक, मंकन, - कांबोज आदि देशोंका उपभोग कर रहे हैं । अभी उस आतरंग राजाने अक्षय अक्षौहिणी सेना वाले उन सब राजाओं सहित आकर जनक राजाकी भूमिको भंग कर दिया है। उन दुष्ट आशयवालोंने प्रत्येक स्थानके चैत्योंका नाश किया है । उनकी सारी आयुभर वे भोग कर सकें इतनी उनको संपत्ति मिल गई है, तो भी वे धर्म में विघ्न कर रहे हैं । धर्म में विन करना ही उनको विशेष इष्ट है । हे दशरथ राजा ! आपके अत्यंत प्रिय इष्ट धर्मकी और जनककी आप रक्षा करो । इन दोनोंके आप ही प्राण रूप हो । " दूतकी बातें - जानेको बाजे बजवाये ।
सुनकर दशरथने तत्काल ही यात्रार्थ
“ संतः सतां परित्राणे विलंबते न जातु चित् । ' ( सत्पुरुष सत्पुरुषोंकी रक्षा करनेमें कभी विलंब नहीं करते हैं ।) उस समय रामने आकर कहा :- "हे पिताजी! म्लेच्छ लोगोंका उच्छेद करनेके लिए यदि आप स्वतः जायँगे तो फिर यह राम अपने अनुज बंधु सहित यहाँ बैठा हुआ क्या करेगा ? पुत्रस्नेहके कारण आप हमें