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जैन रामायण चतुर्थ सर्ग ।
पर बिठाकर · विजयसेन ' मुनिके पाससे दीक्षा ले ली। तीव्र तपस्या करते हुए और अनेक परिसहोंको सहते हुए वह राजर्षि गुरुकी आज्ञा प्राप्त कर एकाकी विचरण करने लगा।
सुकोशल राजाका दीक्षा ग्रहण करना। एक वार कीर्तिधर मुनि मासोपवासी होनेसे पारणाकी इच्छा कर साकेत-अयोध्या-नगरमें आये । मध्यान्हके समय वे भिक्षाके लिए फिरने लगे । राजमहलमें बैठी हुई सहदेवीने उनको देखा और सोचा-“ पहिले इन्होंने दीक्षा ले ली इससे मैं पतिविहीना हुई । अब यदि सुकोशल इनको देख कर कहीं दीक्षा ले लेगा, तो मैं पुत्र विहीना हो जाऊँगी; और यह पृथ्वी स्वामी विनाकी हो जायगी । इस लिए इस राज्यकी कुशलताके लिए, ये मुनि मेरे पति हैं, व्रतधारी हैं और निरपराधी हैं तो भी, इनको नगरसे बाहिर निकलवा देना चाहिए।"
ऐसा सोचकर, सह देवीने दूसरे वेशधारियों के पाससे उनको नगरसे बाहिर निकलवा दिया। कहा है कि. 'लोभाभिभूतमनसां विवेकःस्यात्कियच्चिरम् ।' __ (जिनका मन लोभसे पराजित हो जाता है-लोभके वश हो जाता है, उनको चिरकालतक विवेक नहीं रहता है।)
सहदेवीने अपने व्रतधारी स्वामीको नगरसे बाहिर