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१४४ जैन रामायण चतुर्थ सर्ग । हुए हैं। तेरी बहिन मनोरमा यदि कुलवती होगी, भी मेरे साथ दीक्षा लेगी; नहीं तो उसका सांसारिक जीवन कल्याणकारी बनो । मुझे तो अब भोगसे कुछ मतलब नहीं है । अतः मुझे व्रत लेनेकी आज्ञा दे और मेरे पीछे तू भी व्रत ग्रहण कर । कहा है कि:
_' कुल धर्मः क्षत्रियाणां स्वसंधापालनं खलु ।'
( अपनी प्रतिज्ञाका पालन करना ही क्षत्रियोंका कुल धर्म है।)
इस भाँति उदयसुंदरको प्रतिबोध-शिक्षा-देकर वज्रबाहु गुणरूपी रत्नोंके सागर गुणसुंदर मुनिके पास गया। वहाँ जाकर तत्काल ही उसने मुनिसे दीक्षा ग्रहण कर ली । उसके साथ ही उदयसुंदर, मनोरमा और अन्यान्य पचीस राजकुमारोंने भी दीक्षा ले ली।
विजय राजाने सुना कि 'वज्रबाहुने दीक्षा ले ली है।' उसने सोचा-वह बालक होने पर भी मुझसे श्रेष्ठ है और मैं वृद्ध हो गया तो भी ( भोगोंमें लिप्त हूँ इसलिए ) श्रेष्ठ नहीं हूँ । सोचते सोचते उसको वैराग्य उत्पन्न हो आया । इस लिए उसने भी अपने छोटे पुत्र पुरंदरको सज्य गद्दी दे कर निर्वाणमोह नामा मुनिके पाससे दीक्षा ले ली।
समय आनेपर पुरंदरने भी अपनी 'पृथिवी' नामा