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जैन रामायण चतुर्थ सर्ग ।
वज्रबाहु मनोरमाको लेकर अपने नगरको चला। उदयसुंदर नामका उसका साला भी भक्ति और स्नेहसे उसके साथ गया। मार्गमें चलते हुए उन्होंने एक गुण सागर नामा मुनिको देखा । वे उदयाचलस्थ सूर्यकी भाँति, वसंतगिरिपर तप तेजसे प्रकाशित हो रहे थे। तपस्या करते हुए मुनि ऊपरको देख रहे थे; ऐसा जान पड़ता था, मानो वे मोक्ष मार्गको देख रहे हैं।
मेघको देखकर जैसे मोर प्रसन्न होता है। वैसे ही मुनिको देखकर वज्रबाहु प्रसन्न हुआ । उसने तत्काल ही अपना वाहन रोक दिया और कहा-" अहा! ये कोई महात्मा मुनि हैं; वंदना करने योग्य हैं । चिन्तामणि रत्नकी भाँति किसी बड़े पुण्यके उदयसे मुझको इनके दर्शन हुए हैं।"
यह सुनकर उसके साले उदयसुंदरने हँसीमें कहाः" कँवर साहिब ! क्या दीक्षा लेना चाहते हैं ?"
बज्रबाहुने उत्तर दिया:-" हाँ मेरी ऐसी ही इच्छा है।"
उदय सुंदरने उसी भाँति हँसीमें कहाः-“हे राज कुमार ! यदि इच्छा हो तो देर न करो मैं तुमको सहायता दूंगा। - वज्रबाहु बोला:-" देखो, जैसे समुद्र अपनी मर्यादा को नहीं छोड़ता है, वैसे ही तुम भी अपनी प्रतिज्ञासे च्युत मत होना।"