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जैन रामायण द्वितीय सर्ग । एक दूसरे पर प्रहार करता था। दोनों बलवान थे; एक दूसरेके शस्त्रका अपने शस्त्रसे चूर्ण कर देता था । इस तरह पूर्व और पश्चिम सागरकी भाँति उनमेंसे एक भी हीन नहीं हुआ, फिर रणरूपी यज्ञमें दीक्षित बने हुए वे दोनों बाध्य बाधकताको करनेवाले उत्सर्ग और अपवाद मार्गकी तरह, मंत्रास्त्रोंसे एक दूसरेके शस्त्रको बाध करते हुए युद्ध करने लगे।
एक ही बीट पर रहनेवाले दो फलोंकी तरह, ऐरावत और भुवनालंकार हाथी जब एक दूसरेसे मिल गये, तब छलको जाननेवाला रावण अपने हाथीपरसे उछल कर, ऐरावत हाथीपर कूद गया; और उसके महावतको मारकर, एक बड़े भारी हाथीकी तरह उसने इन्द्रको बाँध लिया । यह देखकर सारे राक्षस वीरोंने, हर्षसे उग्र कोलाहल किया और आकर उस हाथीको घेर लिया. जैसे कि, शहदके छातेको मक्खियाँ घेरे रहती हैं । जब रावणने इन्द्रको पकड़ लिया, तब उसकी सारी सेना घबरा गई। उसने अपने हथियार छोड़ दिये । कारण
. 'विदुद्राव जिते नाथे जिता एव पदातयः ।'
(स्वामीके पराजित हो जानेपर सेना भी पराजित हो जाती है।' ) ऐरावत हाथी सहित इन्द्रको लेकर रावण अपनी छावनीमें गया.। और आप वैतान्यकी दोनों श्रेणियोंका जायक होगया।