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रावणका दिग्विजय।
ओंके शस्त्रोंकी टक्करसे जो शब्द होता था, वह ऐसा मालूम होता था, मानो दो बादलके टुकड़े आपसमें टकरा गये हैं।
फिर रावण अपने 'भुवनालंकार' नामके हाथीपर चढ़, धनुषपर चिल्लेको चढ़ा, यह कहता हुआ आगे बढ़ आया कि, इनमच्छरोंके समान बिचारे सैनिकोंको क्यों मारना चाहिए ? ऐरावत हाथी पर बैठे हुए इन्द्रने भी अपना हाथी आगे बढ़ाया। दोनोंके हाथी भिड़ गये। एकने दूसरे की सुंडमें मूंड डाली। उनकी संमिलित गुंडें ऐसी मालूम होती थीं, मानो दो भुजंग आपसमें लिपट गये हैं। या दोनों हाथीयोंने नागपाशकी रचना की है।
दोनो बलवान गजराज दाँतोंसे परस्पर प्रहार कर अरणि काष्टके मथनकी भाँति उसमेंसे अग्निकी चिनगारियाँ उड़ाने लगे । दाँतोंके आघातसे, दोनोंके दाँतों के स्वर्णवल-सोनेके कड़े-निकल निकल कर गिरने लगे। जैसे कि विरहिणी स्त्रीके हाथोंसे निकल कर पड़ा करते हैं। दाँतोंके आघातसे दोनोंके शरीरसे रक्तकी धारा बहने लगी; जैसे गंडस्थलमेंसे मदकी धारा बहा करती है।
उसी समय रावण और इन्द्र भी परस्परमें दो हाथियोंकी तरह युद्ध कर रहे थे । तोमर, मुद्गर और बाणोंका
१---एक प्रकारका काष्ट होता है । पहिले, जिस जमानेमें दीया सलाई नहीं चली थी, तब लोग इसीसे आग पैदा किया करते थे। संघर्षसे इसकी लकड़ी जल उठती है ।