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रावणका दिग्विजय |
वहाँसे लौटकर रावण लंकामें गया और पिंजरे में जैसे तोतेको बंद करते हैं, वैसे ही उसने इन्द्रको जेलखाने में बंद कर दिया ।
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यह खबर इन्द्रके पिता सहस्रारको हुई । वह दिग्पालोंको लेकर, लंकामें गया और हाथ जोड़, नमस्कार कर रावण से कहने लगा:-- “ जिसने कैलाश पर्वतको एक पत्थरकी तरह उठा लिया ऐसे तुम्हारे समान वीरसे पराजित होकर, हम तनिक भी लज्जित नहीं हैं । इसी तरह तुम्हारे समान वीरसे याचना करनेमें भी हमें किसी तरहकी लज्जा नहीं मालूम होती है । इस लिए मैं प्रार्थनाकरता हूँ कि इन्द्रको छोड़ दो मुझे पुत्र भिक्षा दो । "
रावण बोला :-- “ यदि इन्द्र अपने परिवार और दिग्पालों सहित कुछ काल पर्यंत निरंतर कार्यकरता रहे, तो मैं उसको छोड़ सकता हूँ । काम यह है-
अपने रहनेके घरको जिस तरह कूड़े कचरे रहित - साफरखते हैं, उसी तरह लंकाको वह साफ रक्खे; प्रातःकाल ही दिव्य सुगंधित जलसे, मेघकी तरह, वह नगरीमें छिड़काव करे; और मालीकी भाँति बागोंमेंसे फूल तोड़, उनकी मालाएँ बना, जितने भी नगर में देवालय हैं, उनमें वह मालाएँ पहुँचाया करे ।
इतना कार्य करना यदि
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को
स्वीकार RECEDEP % JAN 281001