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जन रामायण द्वितीय सर्ग ।
आझा हो, तो भी न इस पापराशी पुरुषकी ओर देखें और न इसे बोलावें ।"
राजा सुमित्र गुप्त रीतिसे वनमालाके पीछे आया था। उसने छिपकर सब बातें सुनीं । अपने मित्रका ऐसा सत्व देखकर उसको अत्यंत हर्ष हुआ। .
प्रभवने वनमालाको, नमस्कार करके खाना कर दिया। फिर वह खड्ग उठाकर अपना शिरच्छेद करनेको तैयार हुआ। उस समय सुमित्रने झटसे आकर उसके हाथमेंसे खग छीन लिया और कहा:-" क्या कोई ऐसा भी दुस्साहस करता है ?"
प्रभवका, मारे लज्जाके सिर झुक गया । ऐसा जान पड़ता था मानो बह पृथ्वीमें फँस जानेकी तैयार कर रहा है । सुमित्रने बड़ी कठिनतासे उसके हृदयको स्वस्थ किया। फिर दोनों मित्र पहिलेके समान ही मित्रता रख कर वापिस राजकाज करने लगे। - कुछ काल बाद सुमित्र दीक्षा ले, तपकर मरा और ईशान देवलोकमें जाकर देवता हुआ । वहाँसे चव करआकर-हरिवाहनकी माधवी नामा स्त्रीसे तू मधु नामक पराक्रमी पुत्र हुआ है।
प्रभव चिरकालतक संसारमें भ्रमण कर “विश्वावसुकी ज्योतिर्मती नामा स्त्रीसे श्रीकुमारनामा पुत्र हुआ। और वह नियाणापूर्वक तप करनेसे मरकर चमरेंद्र हुआ।