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________________ रावणका दिग्विजय । प्रभव अपने घर चला गया । राजाने रानी वनमालाको, उसी दिन संध्याके समय प्रभवके घर भेज दिया। स्वयं दूतीकी भाँति वह प्रभवके घर गई । और उससे कहने लगी:-"तुमको दुःखी देखकर, राजाने मुझे तुम्हारी सेवा के लिए भेजा है । पतिकी आज्ञा मानना मेरा सबसे प्रथम कर्तव्य है । अतः आजसे तुम मेरे जीवन हो । जो कुछ आज्ञा हो, मुझे दो । मैं उसको पालनेके लिए तैयार हूँ। इच्छा करो तो मेरे पति तुमको अपना राज्य भी दे सकते हैं। फिर मैं तो कौन चीज हूँ। प्रसन्न होओ। अब भी उदास होकर मेरे मुँहकी ओर क्या देख रहे हो ? प्रभव पश्चात्ताप करता हुआ बोला:-" अरे ! मुझ क्षुद्र विचारीको धिक्कार है ! सुमित्र महान सत्यवान पुरुष है कि, जिसका हृदय ऐसा महान है । जो मुझ पर इतना स्नेह रखता है । दूसरोंके लिए अपने प्राणं दिये जाते हैं; परन्तु अपनी प्रिया नहीं दी जाती; क्यों कि प्रियाका देना अत्यंत दुष्कर कार्य है । मगर मेरे मित्रने तो मेरे लिए वह भी किया । मैं पिशुन-दुर्जन-चुगलखोर तुल्य हूँ। जिससे मैं न कहने योग्य भी कहता हूँ और न माँगने योग्य भी माँग लेता हूँ। मगर मेरा मित्र कल्पवृक्षके समान है। उसके पास सब कुछ है; सब कुछ देनेके याग्य है; और वह देता है । वनमाला ! आप मेरी माताके समान हैं । अतः आप अब यहाँसे चली जायें । और आजके बाद यदि पतिकी
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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