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जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।
एक वार सुमित्र राजाको लेकर, घोड़ा किसी जंगलमें चला गया । वहाँ सुमित्रने एक पल्लीपतिकी कन्या ' नवमालाके' साथ लग्न किये । उसको लेकर राजा अपने नगर में आया ।
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एक दिन उस अद्वितीय रूप यौवन सम्पन्ना वनलीलाको प्रभवने देखा । उसके दर्शनने प्रभवके हृदय में कामज्वाल सुलगा दी । वह रात दिन जलने लगा; कृष्णपक्ष के चन्द्रमाकी भाँति रात दिन क्षीण होने लगा । उसका वह काम - रोग इतना असाध्य हो गया कि, किसी भी प्रकारका औषधोपचार, या मंत्र, तंत्र उसको अच्छा न कर सका । यह देख कर राजा सुमित्रने उसको " हे बन्धु ! पूछा:तुझे जो चिन्ता या दुःख हो वह स्पष्टतया बता दे । "
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प्रभवने उत्तर दिया: ―" हे विभो ! वह ऐसी चिंता नहीं है कि, जिसको मैं प्रकट कर सकूँ । यद्यपि वह मेरे दिल में है, तथापि वह महा खराब है- कुलको कलंकित करनेवाली है । " राजाने सही बात बतानेका बहुत आग्रह किया तब उसने कहा:-" आपकी रानी वनमालापर मैं मुग्ध हो गया हूँ । यही मेरी दुर्बलताका कारण है ।
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राजाने कहा :- " तेरे लिए, आवश्यकता पड़े तो, सारा राज्य ही छोड़ दूँ फिर यह रानी तो कौन चीज है ? तू आज ही उक्ष स्त्रीको पावेगा । "