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रावणका दिग्विजय |
वही चमरेंद्र मैं हूँ । तेरा पूर्व भवका मित्र हूँ ।" इतना वृत्तान्त सुनाकर मुझे उसने यह त्रिशूल दिया था । यह त्रिशूल दो हजार योजनतक जाकर अपना कार्य करके, वापिस लौट आता है ।
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उसका उक्त प्रकारका वृत्तान्त सुन रावणने, भक्ति और शक्ति दोनोंके धारक मधुको अपनी कन्या मनोरमा ब्याह दी ।
नलकूबरका पकड़ा जाना ।
लंका से रवाना हुएको जब अट्ठारह बरस बीत गये, तब रावण मेरु पर्वत के ऊपर वाले पांडुक वनमें जो चैत्य हैं उनकी पूजा करने के लिए गया । वहाँ बड़ी धूम धामके साथ रावणने उत्सव किया; पूजा की; सब चैत्योंकी वंदना की ।
दुघरमें इन्द्रराजाके पूर्व दिग्पाल ' नल कूबर " रहते थे । उसी समय में कुंभकर्णादि रावणकी आज्ञासे उनको पकड़ने के लिए गये ।
नलकूबरने ' आशाली ' विद्याके द्वारा अपने नगरके चारों तरफ सौ योजनका अग्निमय कोट बना रक्खा था और उसपर ऐसे अग्निमय यंत्र लगा रक्खे थे, कि जिनमेंसे निकलते हुए स्फुलिंग; आकाशमेंसे आग बरसती हो, ऐसे मालूम होते थे । इस प्रकार के सुदृढ़ कोटका अवष्टंभ