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जैन रामायण द्वितीय सर्ग।
हुआ है, वह देवताके उद्देश्यसे हुआ है।" इस प्रकार उपदेशसे जब सगरने उसका मत स्वीकार कर लिया, तब उसने कुरुक्षेत्र आदिमें बहुतसे यज्ञ करवाये । इस प्रकार अपने मतके फैल जाने पर उसने राजसूय आदि यज्ञ भी करवाये और यज्ञमें मारे जानेवाले पशुओंको उस असुरने विमानोंमें बैठे हुए बतलाये । इस प्रकार पर्वतके मतकी सत्यता पर विश्वास करके, लोग फिर निःशंक होकर यज्ञमें जीव वध करने लगे। __यह देखकर, मैंने दिवाकर नामके एक विद्याधरसे कहा कि-" तुझ यज्ञमेंसे सारे पशुओंका हरण कर लेना चाहिए।" मेरा वचन मानकर वह यज्ञों से पशुओंका हरण करने लगा। यह बात उस परमाधामी असुरको मालूम हुई । विद्याधरकी विद्याहरनेके लिए, महाकालने यज्ञोंमें ऋषम देव भगवाकी प्रतिमा स्थापित करना प्रारंभ किया। यह देखकर दिवाकरने पशुओंका हरना छोड़ दिया । मैं भी निरुपाय होकर वहाँसे अन्यत्र चलागया ।
तत्पश्चात् उस असुरने मायाद्वारा यज्ञवेदीमेंसे शब्द करवाये कि सगर राजाका बलि दो । तत्काल ही सगर राजा, सुलसासहित, यज्ञकी आगमें डाला गया । उसकी जलकर, राख हो गई । महाकाल असुर अपनेको कृतार्थ समझ निज स्थानको चला गया। . . इस भाँति पापके पर्वत रूप पर्वतने हिंसात्मक यज्ञोंकी प्रवृत्ति चलाई है। वह अब तुम्हारे बंद करने योग्य है । "