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रावणका दिग्विजय ।
WARANANAMANNAMAMANNARNAMANNANNAAMANANAMAANrrrrrrrrrrrrnamam
सगर राजाके नगरमें, अन्तःपुरमें और परिवारमें भी उस राक्षसने अत्यंत भयंकर रोग फैलाये । सगर राजा भी लोगोंकी प्रतीतिके अनुसार पर्वतसे रोग शान्ति कर बाने लगा। पर्वतने शांडिल्यकी सहायतासे सब जगह शान्ति स्थापन की।
तत्पश्चात् शांडिल्यके कथनानुसार पर्वत उपदेश देने लगा कि-" सौत्रामिणी यज्ञमें, मदिरा-शराब पीना चाहिए, क्यों कि विधिवत सुरापानमें कोई दोष नहीं है । 'गोसव' यज्ञमें गमन न करने योग्य-माताबहिन आदिके साथ भोग करना चाहिए; वेदी पर 'मातृमेध' यज्ञमें माताका,
और 'पितृमेध' यज्ञमें पिताका, वध करना चाहिए, इसमें कोई दोष नहीं है । कछुवेकी पीठपर अग्नि रखकर, 'जुह्वकाख्याय स्वाहा' कहकर सावधान के साथ हवनीय द्रव्यसे होम करना चाहिए । और यदि कछवा न मिले तो गंजे सिरवाले, पीले वर्णके, आलसी और गलेपर्यन्त निर्मल जलमें उतरे हुए शुद्ध ब्राह्मणके कछुवेके समान मस्तक पर आग जलाकर, आहुति देनी चाहिए । जो हो गये
और जो होनेवाले हैं; जो मोक्षके ईश्वर हैं और जो अन्नसे निर्वाह करते हैं वे सब पुरुष ईश्वर-मय हैं, अतएव कौन किसका वध करता है ? इस कारण यज्ञमें अपनी इच्छाके अनुसार जीव वध करना चाहिए । यज्ञमें मांस भक्षण करना कर्तव्य है। यज्ञके द्वारा जो मांस पवित्र