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अविकत्थन --- यथायोग्य दण्ड प्रायश्चित्त के देने वाले हों: क्योंकिअपराध के अनुसार दण्ड देना, यही न्यायशीलता है। यदि पक्षपात द्वारा प्रायश्चित्त दिया जायगा तो वह अन्याय होगा, अपराधी के अपराध के अनुसार जो प्रायचित्त दिया जाता है वह केवल आत्म-शुद्धि के लिये ही दिया जाता है । जैसे कि“चिकित्सागम इव दोषविशुद्धिहेतुर्दण्ड. " - जिस प्रकार जो वैद्य चिकित्सा करता है वह सब सन्निपातादि रोगों की विशुद्धि के लिये ही करता है, उसी प्रकार जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह सव दोषों की विशुद्धि के लिये ही दिया जाता है । परन्तु साथ ही यह नियम भी है कि- “ यथाटोपं दण्डप्रणयनं दण्डनीतिः दोप के अनुसार दण्ड प्रदान करना यह तो दण्डनीति कहलाती है. यदि इस के विपरीत किया जाय तब वह न्यायशीलता नहीं कहलाती किन्तु उसे न्यायशीलता कहा जाता है। अतएव आचार्य में यह गुण अवश्यमेव होना चाहिए | अपितु उसे प्रकाशन भी करना चाहिए: क्योंकि विकत्थन नाम है स्वल्पतर अपराध को भी पुनः २ उच्चारण करना सो जो पुनः २ न कहा जाए किन्तु उस की विशुद्धि का यत्न किया जाय, उसका नाम है "अविकत्थन" सो आचार्य विकत्थन गुण वाला अवश्यमेव होना चाहिए ।
६ श्रमायी-छल से रहित होनाः क्योंकि - मायावी पुरुष धर्ममार्ग से विचलित हो जाता है, और कपट को शुभ कर्म के नाश करने में वा उस क्रिया की सिद्धि में प्रथम विघ्न माना गया है । इतना ही नहीं किन्तु जहां पर कपट उत्पन्न होता है, उसी स्थान पर फिर असत्य का भी जन्म हो जाता है, इसलिये गणी को आर्जव भाव से काम लेना चाहिए, नतु वक्रता से ।
शास्त्रों में यह बात भली प्रकार से सुप्रसिद्ध है कि श्रीमल्लिनाथ भगवान् ने पूर्व जन्म में छल पूर्वक तपोऽनुष्ठान किया था, उसका यह फल हुआ कि तीर्थकर गोत्र वन्ध जाने पर भी स्त्रीत्व भाव प्राप्त हुआ । अतएव माया कदापि न करनी चाहिए, किन्तु जिस व्यक्ति ने किसी प्रकार की अध्यक्षता स्वीकार की हो उसे तो इस पाप कर्म से अवश्यमेव वचना चाहिये । क्योंकिजब वह उक्त कर्म से वच जायगा तब ही उसका किया हुआ न्याय प्रमाण हो जायगा ।
१० स्थिरपरिपाटी - ' कोटक वुद्धिलब्धिसम्पन्न होवे' अर्थात् जिस प्रकार सुरक्षित कोटक में धान्यादि पदार्थ भली प्रकार रह सकते है, विकृति भाव को प्राप्त नहीं होते, ठीक उसी प्रकार शास्त्रीय ज्ञान हृदय रूपी कोटक में भली प्रकार स्थिर रहे । प्रमादादि द्वारा वह ज्ञान विस्मृत न हो जाना चाहिये । ताकि जिस समय किसी पदार्थ के निर्णय करने की आवश्यकता हो उसी समय हृदय रूपी कोटक से शास्त्रीय प्रमाण शीघ्र ही प्रकट