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________________ ( ६७ ) किये जासकें, उसी का नाम " स्थिरपरिपाटि " कहा जाता है तथा चरणकरणानुयोग के सिद्धान्त तो आचार्य के अस्खलित भाव से कण्ठस्थ होने चाहिये, कारण कि-गच्छ की सारणा और वारणादि क्रियाएं प्रायः इसी अनुयोग के सिद्धान्तों पर अवलम्बित होती है. तथा व्यवहारसूत्र, वृहत्कल्पसूत्र, दशाश्रुतस्कंधसूत्र तथा नशीथसूत्र इत्यादि क्रिया-विशुद्धि के सूत्रों का अभ्यास आचार्य को अस्खलित भाव से होना चाहिए । जो श्रुतज्ञान स्थिरपरिपाटि से ग्रहण किया जाता है, वह इस जन्म और परलोक में भी कल्याण करने वाला होता है। ११ गृहीतवाक्य-आचार्य के मुख से इस प्रकार के बचन निकलने चाहिएं कि-जो सव भव्य प्राणियों को उपादेय (मनन करने योग्य ) हों; क्यों कि-जो वचन पक्षपात रहित और भव्य जीवों का कल्याणकारी होता है, वह साक्षर लोक में अवश्य मानने योग्य हो जाता है । अतएव गणि का वाक्य राग द्वेष से रहित तथा सत्पथ का प्रदर्शक होना चाहिए। १२ जितपरिपत्-श्राचार्य सभा के समक्ष न्याय पूर्वक और सत्य कथन करने वाले हों। क्योंकि-जव परिपद् में अक्षोभ चित्त होकर बैठेंगे तव प्रत्येक विषय पर शांत चित्त से ईहा अपोह कर सकेंगे, किन्तु जव चित्त भ्रम युफ्त होगा, तब निर्णय तो दूर रहा स्वसिद्धान्त से भी स्खलित हो जाने की सम्भावना है, अतएव शांतचित्त. न्यायपक्षी, वहुश्रुत, समयज्ञ, पुरुष ही "जितपरिपद" के गुण वाला हो सकता है। १३ जितनिद्रः-निद्रा के जीतने वाला हो । कारणकि-श्रालस्य युक्त वा अप्रमाण से निद्रा लेने वाला पुरुष अपूर्व ज्ञान के ग्रहण से वंचित ही रहता है इस के अतिरिक्त जो पूर्वपठित ज्ञान होता है, वह भी विस्मृत होने लग जाता है। क्योंकि-सदव निद्रा में रहने वाला जब अपने शरीर की भली प्रकार रक्षा नहीं कर सकता तो शान की रक्षा क्या करेगा? जब वह ज्ञान की रक्षा से शून्य चित्त हो गया तो फिर वह गच्छ की रक्षा में किस प्रकार उद्यत हो सकता है ? इसलिये "जितनिद्र" अवश्यमेव होना चाहिए। १४ मध्यस्थ-संसार पक्ष में बहुत से प्रात्मा राग द्वेप के वशीभूत होकर न्याय के स्थान पर अन्याय कर बैठते हैं, इसी कारण वे सत्पथ का अवलम्बन नहीं कर सकते, अतएव श्राचार्य प्रत्येक पदार्थ को माध्यस्थ भाव से देखने वाला हो, क्योंकि-जव समभाव से हर एक पदार्थ पर विचार कियाँ जायगा, तब उस का निष्कर्ष शीघ्र उपलब्ध हो जायगा, इस लिये माध्यस्थता का गुण अवश्यमेव धारण करना चाहिए, जिस के द्वारा राग द्वेष न्यून होकर आत्म विकाश प्रकट हो।
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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