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जाति शुद्ध होनी चाहिए।
४ रूपवान्–शरीराकृति ठीक होने पर ही महाप्राभाविक पुरुष हो सकता है। क्योंकि-शरीर की लक्ष्मी दूसरों के मन को प्रफुल्लित करने वाली होती है; जैसे श्री केशीकुमार श्रमण के रूप को देख कर प्रदेशी राजा, और श्रीअनाथी मुनि के रूप को देख कर राजा श्रेणिक आश्चर्यमय हो गए। इतना ही नहीं किन्तु उन के मुख से वाणी को सुन कर धर्म पथ में आ गए। इस लिये प्राचार्य महाराज का शरीर अवश्यमेव सुडौल और सुन्दर होना चाहिए जिस से वादी और प्रतिवादी जन को विस्मय हो और वे धर्म पथ में शीघ्र श्रा सकें।
५ दृढसंहनन-जिस प्रकार शरीराकृति की अत्यन्त आवश्यकता है, उसी प्रकार संहनन दृढ़ होना चाहिए। क्योंकि-यावत्काल पर्यन्त शरीर की समर्थता ठीक नहीं है, तावत्काल पर्यन्त भली प्रकार अध्ययन और अध्यापनादि क्रियाएं ठीक नहीं हो सकती । अतएव गच्छाधिपति के करणीय क्रियाओं के लिये दृढ़संहनन की अत्यन्त आवश्यकता है तथा उक्त गुण के विना शीत वा उष्णादि परीषह भी भली प्रकार सहन नहीं किये जा सकते । अतएव प्राचार्य में उक्त गुण अवश्य होने चाहिएं।।
६ धृतिसंपन्न-साथ ही प्राचार्य में धैर्य गुण पूर्णतया होना चाहिए। क्योंकि-जब मन का साहस ठीक होगा तब गच्छ का भार भली प्रकार वह उठा लेगें, कठोर प्रकृति वाले साधुओं का भी निर्वाह कर सकेंगे: क्योंकि-जब गच्छाधिपति न्याय मार्ग में स्थित होकर न्याय करने में उद्यत होता है, तब उस को पत्ती और प्रतिपक्षियों के नाना प्रकार के शब्द सुनने पड़ते हैं। सो यदि वे उक्त गुण युक्त होंगे तो उन शब्दों को सम्यक्तया सहन करके न्याय मार्ग से विचलित नहीं होंगे। यदि उन में धैर्यगुण स्वल्पतर होगा, तब लाभ के स्थान पर प्रायः हानि होगी । कारण कि-क्षणिक चित्त वाला आत्मा किसी कार्य केभी सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता । यद्यपि यह गुण प्रत्येक व्यक्ति में होना चाहिए, परन्तु जो गच्छाधिपति हों उन्हें तो यह गुण अवश्यमेव धारण करना चाहिए ।
७ अनाशंसी-अशन पानादि वा सुंदर वस्त्रादि की आशंसा (आशा) न करे; क्योंकि-जिस स्थान पर लोभ संज्ञा विशेष होती है वहां पर मोक्षमार्ग में विघ्न उपस्थित हो जाता है, तथा जब गणी लोभ के वश हो जायगा, तव अन्य भिक्षुओं को सन्मार्ग में लाना कठिन हो जायगा। यह नियम की बात है कि-जो आप भली प्रकार सुशिक्षित होगा वही अन्य व्यक्तियों को सुशिक्षित कर सकेगा । अतएव अनाशंस गुण प्राचार्य में अवश्यमेव होना चाहिए।