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( २६६) १ नरकगतिपरिणाम की अपेक्षा से नरकगति परिणाम में वे जीव परिणत हो रहे हैं।
२ इंद्रियपरिणाम की अपेक्षा से वे जीव पंचेंद्रिय परिणाम से परिणत हैं।
३ कपायपरिणाम की अपेक्षा से वे जीव क्रोध, मान, माया और लोभ में भी परिणत हो रहे हैं।
४ लेश्यापरिणाम की अपेक्षा से वे जीव कृष्ण लेश्या, नीललेश्या और कपोत लेश्या में ही परिणत हो रहे हैं . ५ योगपरिणाम की अपेक्षा से वे जीव मन, वचन और काय के योग से भी परिणत हो रहे हैं।
६ उपयोग परिणाम की अपेक्षा से-वे जीव साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त दोनों उपयोगों से उपयुक्त हो रहे हैं ।
७ ज्ञानपरिणाम की अपेक्षा से प्राभिनिबोधिक ज्ञान, श्रृतज्ञान अवधि शान से परिणत हैं। अज्ञान परिणाम की अपेक्षा से मति अज्ञान श्रुत अज्ञान तथा विभंग ज्ञान से परिणत हो रहे हैं।
८ दर्शनपरिणाम की अपेक्षा से वे जीव सम्यग्दृष्टि भी हैं, मिथ्यादृष्टि भी हैं और सम्यग् और मिथ्यादृष्टि भी हैं।
चारित्र परिणाम की अपेक्षा से वे जीव साधुवृत्ति वाले नहीं हैं। नाही वे गृहस्थ धर्म के पालन करने वाले ही हैं । किन्तु वे अचरित्री अर्थात् नियमादि से रहित ही हैं।
११ वेदपरिणाम की अपेक्षा से वे जीव स्त्रीवेदी नहीं हैं; नाँही वे जीव पुरुषवेदी ही हैं किन्तु वे तो केवल नपुंसक वेद वाले ही हैं।
इस प्रकार नरक में रहने वाले जीवों के दश प्रकार के परिणाम होते है । साथ में यह भी सिद्ध किया गया है कि जीव सदैव काल परिणत होता रहता है। अतएव जीव को परिणामी माना गया है किन्तु द्रव्य का सर्वथा नाश नहीं माना जाता, केवल द्रव्य का द्रव्यान्तर होजाना ही परिणाम माना गया है।
अव दश प्रकार के भवनपति देवों के परिणाम विषय में सूत्रकार कहते है। जैसेकि_असुर कुमारावि एवं चेव नवरं देवगतिया करहलेसावि जाव तेउलेसावि वेदपरिणामेणं इत्थिवेदगावि पुरिस वेदगावि नो नपुंसक वेदगा सेस तं चेव एवं थणिय कुमारा।
भावार्थ-जिस प्रकार नरक में रहने वाले जीवों का वर्णन किया गया