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________________ ( २८६ ) होता है कि- द्रव्यास्तिक नय के मत से जब द्रव्य पूर्व पर्याय से उत्तर पर्याय को परिणमन होता है तब उस समय सर्वथा पूर्व पर्याय का नाश नहीं माना जा सकता जैसे कि किसी देव ने अपने मन के संकल्पों द्वारा वैक्रिय से अपना उत्तर वैक्रियरूप धारण कर लिया किन्तु उसका जो पूर्व वैक्रियमय शरीर था उसका सर्वथा नाश नहीं हुआ अपितु वह उस का मूल का शरीर उत्तर भावको परिणमन हो गया। इसी प्रकार द्रव्यास्तिक नय के मत से प्रत्येक द्रव्य द्रव्यान्तररूप परिणमन होता रहता है। परंच पर्यायार्थिक नय के मत से पूर्व पर्याय का विनाश और उत्तर पर्याय को उत्पाद माना जाता है, यथा तत्र द्रव्यास्तिकनयमतेन परिणमनं नाम यत् कथंचित् सदेवोत्तरपर्यायरूपमर्थान्तरमधिगच्छति नच पूर्वपर्यायस्यापि सर्वथाऽवस्थानं नाप्येकन्तेन विनाशस्तथा चोक्तं- परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानं नच सर्वथा विनाशपरिणामस्तद्विदामिष्टः ॥ अर्थात् द्रव्य का द्रव्यान्तर परिणमन होना ही द्रव्यास्तिक नय का मुख्य आशय है क्योंकि - परिणाम का अर्थ ही अर्थान्तर हो जाना है । नतु एकान्त से पूर्वरूप में रहना या पूर्वपर्याय का नाश होना । इस प्रकार द्रव्यास्तिक नय द्रव्यों के स्वरूप को मानता है किन्तु पर्यायार्थिक नय के मत से जब हम पदार्थों के स्वरूप का अनुभव करते हैं तब पूर्व पर्याय का विनाश और उत्तर पर्याय का उत्पाद माना जाता है जैसे कि— पर्यायास्तिकनयमतेन पुनः परिणमनं पूर्वसत्पर्यायापेक्षाविनाश उत्तरेण वा सत्ता पर्यायेन प्रादुर्भावस्तथा चामुमेव नयमधिकृत्याऽन्यत्राक्तेम् । सत्पर्ययेन विनाशः प्रादुर्भावो सता च पर्ययतः द्रव्याणां परिणाम प्रोक्त. खलु पर्ययनयस्य ॥ इस कथन का सारांश यह है कि - पर्यायास्तिक नय के मत से पूर्व पर्यायों का विनाश और उत्तर पर्यायों का उत्पाद माना जाता है किन्तु जो द्रव्यों का परिणाम कथन किया गया है वह पर्याय नय के आश्रित होकर ही प्रतिपादन किया है । अतएव द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक नयों द्वारा पदार्थों का स्वरूप ठीक २ जानना चाहिए । 1 भव्य जीवों के सम्यग् वोध के लिये श्रीपण्णवन्ना ( प्रज्ञापण ) सूत्र के त्रयोदशवें परिणाम पद का हिन्दी भावार्थ युक्त उल्लेख किया जाता है । एकान्त चित्त और एकान्त स्थान में इस पद का किया हुआ अनुभव अध्यात्मिक वृत्ति के लिये अत्यन्त उपकारी होगा । यावत्काल पर्यन्त जीव और अजीव तत्त्वों का परिणाम अन्तःकरण में नहीं बैठ जाता' तावत्काल पर्यन्त पदार्थों का पूर्णतया बोध भी नहीं हो सकता अतः सम्यग् बोध के लिये उक्तपद को सूत्रपाठ सहित लिखा जाता है जिसका आदिम सूत्र यह है यथा च
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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