________________
( २१८ ) कर तथा शुद्ध ब्रह्मचारी वनकर अपना पवित्र समय धर्म ध्यान में ही व्यतीत करना चाहिए। यदि विशेष पौषधोपवास न हो सके तो एक मास में दो पौषधोपवास अवश्यमेव करने चाहिएं। क्योंकि-पौपधोपवास द्रव्य औरभाव दोनों रोगों के हरण करने वाले हैं। जैसे कि
पर्व दिनों में पौषधोपवास करने वाले की जठराग्नि मन्द नहीं होती किन्तु ठीक प्रकार से काम करती रहती है । उन को रोग पराभव नहीं करते । पुनः कर्मों की निर्जरा हो जाने से उन के आत्मप्रदेश निर्मल होजाते हैं। नुधा (भूख) के सहन करने की शक्ति भी बढ़ जाती है। इसलिए पौषधोपवास अवश्यमेव करना चाहिए ।
तयाणन्तरं चणं पोसहोववासस्स समणोवासएणं पञ्चअइयारा जाणियब्बा न समायरियव्वा तंजहा-अप्पदिलेहिए दुप्पदिलहिए सिज्जासंथारे अप्पमञ्जिय दुप्पमजिय सिज्जासंथारे अप्पदिलेहिय उच्चारपासवणभूमी अप्पमज्जिय दुप्पमज्जिय उच्चारपासवणभूमी पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणया॥
उपासकदशाङ्ग अ० ॥१॥ भावार्थ-दशवे देशावकाशिक व्रत के पश्चात् एकादश पौषधोपवास अत के पांच अतिचार जानने तो चाहिएं, परन्तु समाचरण न करने चाहिएं । जैसेकि
१ अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित-शय्यासंस्तारक-जिसस्थान पर पौषधोपवास व्रत धारण करना हो उस शय्या और संस्तारक को भली प्रकार विशेष रूप से निरीक्षण न करना । यदि करना तो अस्थिर चित्त से।।
२ अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तारक-शय्या और संस्तारक भली प्रकार विशेषरूप से रजोहरणादि द्वारा प्रमार्जित न करना । यदि करना तो अस्थिर चित्त से।
३ अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित उच्चारप्रस्रवणभूमि-भली प्रकार से विशेष रूप उच्चार (विष्टा) प्रस्रवण (मूत्र) की भूमि को निरीक्षण न करना । यदि करना तो अस्थिर चित्त से।
४ अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रस्रवण भूमि-भली प्रकार विशेषरूप से मल मूत्र के त्यागने की भूमि को प्रमार्जित (शुद्ध) नही करना। यदि करना तो अस्थिर चित्त से।
५ पौषधोपवासस्य सम्यग् अननुपालनता-पौषधोपवास सम्यग्तया पालन न करना अर्थात् चित्त की अस्थिरता के साथ पौषधोपवास में नाना