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________________ ( २१६ ) प्रकार के खान पान सम्वन्धी संकल्प विकल्प उत्पन्न करना । इन पांच अतिचार रूप दोपों को छोड़कर शुद्ध पौषधोपवास धारण करना चाहिए। पौषधोपवास व्रत के पश्चात् द्वादशवाँ अतिथिसंविभाग व्रत विधि पूर्वक पालन करना चाहिए । क्योंकि साधु का नाम वास्तव में अतिथि है । उस ने सर्व प्रकार की सांसारिक तिथियों को छोड़ कर केवल आत्म-ध्यान में ही चित्त स्थिर करलिया है। अतएव जव वे भिक्षा के लिये गृहों में प्रविष्ट होते हैं तव किसी तिथि के आश्रित होकर घरों में नहीं जाते। नाँही वे प्रथम गृहपति को सूचित करते हैं कि-अमुक दिन हम आप के गृह में भिक्षा के लिये अवश्य पाएँगे। अतः ऐसे भिनु जो अपनी वृत्ति में पूर्ण दृढ़ता रखते हुए मधुकरी भिक्षा वृत्ति से अपने जीवन को व्यतीत करते हैं, जव वे गृह में पधार जाएँ तव आनन्द पूर्वक प्रसन्न चित्त होकर उन की वृत्ति के अनुसार शुद्ध और निर्दोष पदार्थों की भिक्षा देकर लाभ उठाना चाहिए कारणकि सुपात्र दान का महाफल इस लोक और परलोक दोनों में प्राप्त होता है। इस लिये सुपात्र दान कर के चित्त परम प्रसन्न करना चाहिए । जो स्वधर्मी भाई साधु मुनिराजों के दर्शनों के वास्ते आते हैं, वे भी उक्त व्रत में ही गर्भित किये जाते हैं। अतः उन की भी यथायोग्य प्रतिपत्ति करने से अतिथि संविभाग की ही आराधना होती है। साथ ही इस बात का भी शान रहे किजो द्रव्य न्यायपूर्वक उत्पादन किया गया है उसी को विद्वान् वर्ग ने अतिथिसंविभाग व्रत के उपयोगी प्रतिपादन किया है । सारांश केवल इतना ही है कि-चतुर्विध संघ की यथायोग्य प्रतिपत्ति करनी श्रावक वर्ग का मुख्य कर्तव्य है। सो जव मुनि महाराज निज गृह में भिक्षा के लिये पधार जाएँ तव शुद्ध चित्त से उन की यथायोग्य आहारादि द्वारा सेवा करनी चाहिए। तयाणन्तरं चणं अहासंविभागस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्या तंजहा-सचित्तनिक्खेवणया सचित्तपिहणिया कालाइक्कमे पखवदे से मच्छरिया ॥ उपासकदशाङ्गसूत्र अ० ॥१॥ भावार्थ-एकादशवं व्रत के पश्चात् बारहवें अतिथिसंविभागं व्रत के भी पांच अतिचार जानने चाहिए, परन्तु प्रासेवन न करने चाहिएं । जैसेकि १ सचित्तनिक्षेपण अतिचार-साधु को न देने की बुद्धि से निर्दोष पदार्थो को सचित्त पदों पर रखदेना अर्थात् जल पर वा अन्न पर तथा वनस्पति आदि.पर निर्दीप पदार्थ रख दे, ताकि साधु अपनी वृत्ति के विपरीत होने से उस पदार्थ को न ले सके।
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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