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( २१७ ) बत का मुख्योद्देश्य इच्छा का निरोध करना ही है। क्योंकि-इच्छाओं के निरोध से ही भात्मिक शांति उपलब्ध हो सकती है।
देशावकाशिक व्रत धारण कर लेने के पश्चात् श्रावक को इस व्रत के भी पांच अतिचार छोड़ने चाहिएं जैसेकि
तयाणन्तरं चणं देसावगासियस्स समणोवासएणं पञ्चाइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा-तंजहा-आणवणप्पभोगे पेसवणप्पओगे सद्दागुवाए रूवाणुवाए वहियापोग्गलपक्खेवे ॥१०॥
उपासकदशाङ्गसूत्र अ०॥१॥ १ श्रानयनप्रयोग-आवश्यकीय काम पड़ जाने पर परिमाण से बाहिर भूमि से किसी पदार्थ का किसी के द्वारा मंगवाना, यह देशावकाशिक व्रत का प्रथम अतिचार है। क्योंकि-क्षेत्र का परिमाण हो जाने पर फिर परिमाण से वाहिर क्षेत्र से वस्तु का मंगवाना योग्य नहीं है।
२प्रेष्यप्रयोग-जिस प्रकार वाहिर के क्षेत्र से वस्तु मंगवाने का अति चार प्रतिपादन किया गया है। उसी प्रकार वस्तु के प्रेषण करने का भी अतिचार जानना चाहिये।
३ शब्दानुपात-परिमाण की भूमि से बाहिर कोई अन्य पुरुष जा रहा हो उस समय श्रावश्यकीय कार्य कराने के निमित्त मुख के शब्द से अर्थात् आवाज़ देकर उस पुरुष को अपना वोध करा देना । क्योंकि-वह पुरुष जान लेगा कि यह शब्द अमुक पुरुष का है। इस प्रकार करने से भी अतिचार लगता है।
४ रूपानुपात-जिस समय देशावकाशिक व्रत में बैठा हो उस समय किसी व्यक्ति से कोई काम कराना स्मृति आगया तब अपना रूप दिखला कर उस को वोधित करना उस का नाम रूपानुपात अतिचार है। जैसे किगवाक्षादि में बैठकर अपना रूप दिखला देना ।
५ पुद्गलाक्षेप अतिचार-परिमाण की हुई भूमि से वाहिर कोई वस्तु गिराकर अपने मन के भावों को औरों के प्रति प्रकाश करना यह भी अतिचार है।
तदनन्तर एकादशवां पौषधोपवास व्रत है। उपवास करके आठ पहर विशेष धर्मध्यान में व्यतीत करना, 'पोषध' कहलाता है। पर्व के दिनों में, जैसे कि-द्वितीया,पंचमी,अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी और अमावस्या वा पौर्णमासी आदि तिथियों में शुद्ध वसति पोषधशालादि स्थान में सांसारिक कार्यों को छोड़कर पौषधोपवास करना चाहिए जहांतक वन पड़े वह पवित्र समय ध्यानवृत्ति में ही लगाना चाहिए, क्योंकि-विना ध्यान समाधि नही लग सक ती है । साथ ही पौषधोपवास में सांसारिक कार्य वा स्नानादि क्रियाएं त्याग