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आस्तिक भाव रहने में ही संशय उत्पन्न होजाता है ।
इस स्थान पर उक्त दोनों पदार्थों के त्याग के विषय में उल्लेख किया गया है, अवगुणों के विषय में नहीं। क्योंकि-इन के अवगुण प्रायः सर्वत्र सुप्रसिद्ध हैं। साथ ही जो मादक पदार्थ हैं, उन के सेवन करने का भी यत्न होना चाहिए जैसेकि - फीण (अफीम ), चरस, भांग, चंड, तमाखु इत्यादि पदार्थों का सेवन करना युक्तियुक्त नहीं है । क्योंकि ये पदार्थ बुद्धि को विकल करने वाले होते हैं । अतएव इन का सेवन न करना चाहिए ।
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जब इनका भली प्रकार त्याग कर लिया जाय तब बनस्पति में जो साधारण वनस्पतिकाय है, जिसे अनंतकाय भी कहते हैं । जैसे- आलु, मूली, गाजर, जिमीकंदादि । ये पदार्थ भी श्रावक धर्म की क्रियाएं करने वाले व्यक्ति को भक्षण करने योग्य नहीं हैं। क्योंकि उनके भक्षण करने से बहुहिंसा होती है । जव यथाशक्ति कंदमूलादि का परित्याग किया जाय, तब जो प्रत्येक संज्ञक वनस्पति है उसका सर्वथा परित्याग वा परिमाण करना चाहिए | क्योंकियावत्काल पर्यन्त उसका परित्याग न किया जायगा तावत्काल पर्यन्त उक्त गुणव्रत शुद्धतापूर्वक नहीं पल सकता है । इस व्रत में खाने वाले पदार्थों का परिमाण और हिंसक व्यापार का निषेध किया गया है । -
यद्यपि आवश्यक सूत्र में इस व्रत में २६ अंकों के खाने के परिमाण विषय वर्णन किया गया है, तथापि आचार्यों ने उक्त अंकों का समावेश १४ अंकों में कर दिया है, अतएव प्रत्येक गृहस्थ को नित्यप्रति १४ बोलों का परिमाण करना चाहिए | जैसेकि -
सचित्त दव्व विगइ वाणेह तंबोल वत्थ कुसुमेसु | वाहण सयण विलेवण भदिसि न्हाण भत्तेसु ॥ १ ॥
भावार्थ - इस गाथा में गृहस्थ के नित्यप्रति करने योग्य पदार्थो के परिमाण विषय वर्णन किया गया है जैसेकि -
१ सचित्त - जो वस्तु सचित्त है, उसके खाने का सर्वथा परित्याग होना चाहिए । यदि गृहस्थ सर्वथा परित्याग न कर सकता हो तो उसका परिमाण अवश्यमेव होना चाहिए । सचित्त शब्द से पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजोकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ये सब ग्रहण किये जाते हैं । अतएव श्रावक को योग्य है कि- अपनी तृष्णां का निरोध करता हुआ अपने आत्मा के दमन के वास्ते विवेक अवश्य धारण करे। इस बात में कोई भी सन्देह नहीं है कि यावत्काल पर्यन्त तृष्णा का निरोध नहीं किया जायगा तावत्काल पर्यन्त आत्मा आत्मिक सुखों का अनुभव नहीं कर सकता ॥